12/20/2009
अंतरंग संबंधों पर लेखन : बाजार और अवधारणा
आत्मकथा के आयाम में बहुत चितेरे होते हैं, जो पाठकों को आकर्षित करते हैं, किंतु उससे कहीं अधिक आकर्षित करते हैं समाज और निजी जिंदगी के प्रवाह में डूबते-उतराते रिश्ते। संबंधों की अंतरंगता हर किसी के जीवन के खास पहलू होते हैं। उन संबंधों की याद में लोग भावुक होते हैं, जिंदगी से तृष्णा व वितृष्णा होती है और फिर किसी हवा के झोंके के साथ उससे गाहे-बगाहे सामना भी करना पड़ता है।पाश्चात्य संस्कृति में पति-पत्नी के रिश्ते की बुनियाद या हकीकत जो भी हो लेकिन भारतीय परिवेश में इसके मायने अहम हैं।
साहित्य, फिल्म के अलावा राजनीति की चमचमाती जिंदगी में संबंधों की अपनी अहमियत है और अंतरंग प्रसंगों को चटखारे लेने की परंपरा भी नई नहीं है। यही कारण है कि पत्रकार नंदिता पुरी द्वारा लिखी गई किताब ‘अनलाइकली हीरो : द स्टोरी ऑफ आ॓मपुरी’ लोकार्पण होने के पहले ही सुर्खियां बटोरती रही है और आ॓मपुरी के बयान के कारण विवादों की चपेट में है। किसी की जिंदगी के महत्वपूर्ण और पवित्र हिस्सों को सस्ते और चटखारे वाली गॉसिप में बदलना किसी विश्वासघात से कम नहीं है।पति-पत्नी या किसी स्त्री के द्वारा किसी पुरूष या अपने पति के किसी स्त्री के साथ अंतरंग संबंधों को शब्दों को पिरोकर पन्नों में समेटने के मामले में जेहन में पहला नाम कमला दास का आता है। इन्होंने अपने दौर में ‘माई स्टोरी’ लिखकर न सिर्फ अंग्रेजी में बल्कि साहित्य जगत में एक बहस की शुरूआत की थी। इसके बाद अमृता प्रीतम में ‘रसीदी टिकट’ लिखा। कालांतर में अपने संबंधों और पब्लिक स्पेस के साथ-साथ जिंदगी की राहों पर मुश्किलों से रूबरू होने की कहानी तसलीमा नसरीन ने ‘द्विखंडिता’ के जरिए पेश किया। ऐसे ही समय में मन्नू भंडारी ने ‘एक कहानी यह भी’, प्रभा खेतान ने ‘अन्या से अनन्या तक’, मैत्रेयी पुष्पा ने ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ से स्त्रीवादिता के नए आयाम को जन्म दिया।
क्या वास्तव में पति-पत्नी संबंध या जीवन के किसी मोड़ पर पर स्त्री या पर पुरूष से मुलाकात व संबंधों की यह विवेचना गंभीर साहित्य पर सवाल खड़ा नहीं करती? क्या समाज की नैतिकता इस कदर विलुप्त हो चुकी है कि साहित्यकारों व पत्रकारों को निजी जिंदगी के तमाम पहलुओं में बाजार दिखता है जिसे सार्वजनिक किए जाने के बाद ‘नेम’ व ‘फेम’ दोनों उनके कदम चूमती है? जो साहित्य कभी अच्छे मूल्य से समाज को रूबरू कराता था क्या उस समाज में मूल्य खत्म हो गए हैं, यह वह समाज ही नहीं है जो मूल्यों को जान सके? क्या पूंजीवाद इतना हावी हो गया है कि हर चीज बतौर माल बाजार में पेश आने लगी हैं?
आरोप है कि नोबल पुरस्कार विजेता बी।एस। नायपाल ने अपनी पत्नी से जानबूझकर उनके वेश्यालयों में जाने की कहानी पाठकों के सामने लाने का काम किया था।चाहे नेहरू-एडविना को लेकर किताब लिखे जाने का मामला हो, या बेनजीर-इमरान की जिंदगी को लेकर लिखे अंतरंग संबंध के किस्से, इनके सनसनीखेज खुलासे से चर्चा में आना लाजिमी है। चाहे प्रकाशक हो या लेखक, सालों मेहनत के बाद किताब को प्रकाशित करता है तो इस पूंजीवादी युग में वह इसका आर्थिक लाभ की चाहत भी रखता है। यही कारण है कि वर्ल्ड बुक फेयर से कुछेक समय पहले पत्रकार नंदिता पुरी ने इस किताब को पाठकों के सामने रख बाजार को देखते हुए विवाद जानबूझकर विवाद पैदा करने का काम किया है। यही कारण है कि वर्तमान दौर में लेखन एक ऐसा व्यवसाय का रूप लेता जा रहा है जहां जीवन के मूल्य, अंतरंग संबंध गौण हो गए हैं। यही कारण है कि ‘सच का सामना’ में जिन अंतरंग संबंधों को लेकर सवाल किए जा रहे थे और जवाब देकर पैसे कमाए जा रहे थे, वहां नैतिकता, सामाजिकता और मर्यादा कोई मायने नहीं रखती थी बस मायने था तो पब्लिसिटी और पैसा।
अंतरंग संबंधों का खुलासे करने के मामले में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि महानगरों में रहने वाली मुट्ठी भर स्त्रियां अपनी अभिशप्त जिंदगी को लोगों के सामने रखने का साहस कर रहीं हैं। वह भी तब जब पुरूषप्रधान समाज अपनी नंगई करने से बाज नहीं आता। पर्दे के पीछे और घर में हाड़तोड़ काम करने के बाद उसके शब्द लोगों को चटखारे लेकर पढ़ने के लिए आकर्षित करें, यह सामान्य बात नहीं है।
विनीत उत्पल
11/22/2009
क्रिकेटर नंबर वन : मिताली राज
राजस्थान के जोधपुर में तीन दिसंबर, 1982 में जन्मीं मिताली राज दसवीं पास करने के बाद क्रिकेट को काफी गंभीरता से लिया। 1991-92 के समर कैंप में उसने हिस्सा लिया जहां वह एकमात्र महिला खिलाड़ी थीं। क्रिकेट का पहला गुर संपत कुमार ने सिखाया। जब वह पांच साल की थीं तब पहली बार मारेडपल्ली क्रिकेट क्लब में शामिल हुई। महज 12 साल की उम्र में हैदराबाद में वीमेन लीग में वह शामिल हुई और साढ़े 14 साल में 1997 के वर्ल्ड कप के संभावित खिलाड़ियों में शामिल होने का मौका मिला। उसने पहली बार कोलकाता में क्रिकेट कैंप में हिस्सा लिया जहां वह अपने साथ एसएससी की किताबें ले गई थीं।
मिताली बताती हैं कि पूरे परिवार में किसी ने कभी सोचा भी न था कि वह क्रिकेट में अपना करियर बनाएगी। मेरे पापा भाई को क्रिकेट के मैदान पर ले जाते थे जिस कारण मैं भी सुबह में जल्दी जग जाती थीं। चूंकि मेरे पापा एयर फोर्स में अधिकारी रहे थे, इस कारण उन्हें यह पसंद नहीं था सभी लोगों के जगने के बाद मैं बिछावन पर रहूं। कभी वक्त था जब वह सुभाषिणी शंकर और आनंद शंकर जयंत से नृत्य सीखती थीं। यदि वह आज एक क्रिकेटर नहीं होतीं तो नृत्यांगना होतीं। आंध्र प्रदेश की मुख्यमंत्री कोटला विजयभास्कर रेड्डी के सामने उसने नृत्य की प्रस्तुति दी है।
भले ही नृत्य करना उनका शौक था लेकिन सिविल सेवा भी उसका एक सपना था। 2003 में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित मिताली 1999 में आयरलैंड के खिलाफ रिकार्ड 114 रन बनाकर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में अपनी पहचान कायम की। मां लीला राज और पिता एस। डोराज राज की बेटी मिताली ने इंग्लैड के खिलाफ 214 रन बनाकर अपने बल्लेबाजी का जलवा दिखाया है।
चावल-कढ़ी और दाल-चावल पसंद करने वाली भारतीय महिला क्रिकेट टीम की कप्तान मिताली अंडे, बादाम, केला आदि पसंद करती हैं। इंटर करने के बाद मिताली को रेलवे में नौकरी मिली। सचिन तेंदुलकर, एडम गिलक्रिस्ट और माइकल बेवन उसके पसंदीदा खिलाड़ी हैं। उसका मानना है कि क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं है बल्कि यह जीवन जीने की कला है। वह मानती है कि क्रिकेट के कारण ही वह खुद को काफी स्वतंत्र महसूस करती हैं।
11/14/2009
मां : रौशन शानू की एक कविता
मां, तुमने मुझको छोड़
पूरी की जिंदगी की होड़
करता हूं गुस्ताखी माफ
जाना पड़ता है तेरे खिलाफ
मां, तुम आती हो मुझको याद
क्या है अब मेरी औकात
अपने कामों से फरियाद
हर क्षण करता वाद-विवाद
मां, मैं क्या कहूं तुमको
तुम तो जानती हो मुझको
जब हुआ तेरा मुझे आभास
बूंदों से भरा था आकाश
मुझे हुआ न कुछ बरदास्त
आखिर कहां मेरी थी याददास्त
वह हादसा था या कोई सदमा
जिसके कारण हुआ मुकदमा
मां, तुम कुछ कह न रही हो
अपने इरादों में सही हो
क्या हुआ था तुम्हारे साथ
किसने छुड़ाया था मेरा हाथ
मेरे भाग्य में लिखा था क्या
जिसके कारण मिली मुझे सजा
तुम मेरी बातों को मान या न मान
लेकिन तुम मुझको पहचान।
रौशन शानू
11/12/2009
मज़दूर की चैंपियन बेटी कविता गोयत
दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाले परिवार के सदस्य शायद ही कभी सोच सकते हैं कि उनके घर कि बेटी सोना उगलेगी। वह भी अपने मुक्कों के दम पर। वह भी अपने देश में नहीं सीमा पार वियतनाम में। वह भी तब जब उसकी टीम में चार बार कि विश्व चैम्पियन मेरी कॉम, एल। सरिता देवी और एन. उषा जैसी स्तर मुक्केबाज शामिल हों। हालांकि इन सपने जैसी बातों को हकीकत में लाने वाली लड़की है कविता गोयत।
पिछले दिनों वियतनाम में संपन्न तीसरी एशियन महिला इनडोर चैम्पियन में स्वर्ण पदक विजेता कविता मूल रूप से हरियाणा के हंसी ब्लाक के गांव सीसर खरबला की है। हिसार के कैमरी रोड स्थित मनोहर कालोनी वासी साई की बाक्सर कविता के इस मुकाम तक पहुंचने की कहानी ऐसी लड़की की है, जो अपने भाई की जिद के कारण अपने मुक्कों का लोहा पूरी दुनिया से मनवा सकी।
करीब पांच साल पहले तक वह अपने पिता के कामों में हाथ बटाती थी, वहीं घरों के कामकाज में मां के साथ सरीक होती थी। लेकिन एक दिन जब अपने भाई पवन के साथ हिसार के ‘साई सेंटर’ में गई तो उसके दिमाग के किसी कोने में बैठा फितूर जग गया। भाई को रिंग में मुक्केबाजी करते देख वह भी इस खेल की दीवानी हो गई।जिस घर का पूरा परिवार पिता आ॓मप्रकाश की दिहाड़ी पर चलता हो, वहां बेटी की जिद कैसे मान ली जाती। लेकिन जब हौसले बुलंद हों तो लक्ष्य पाने में कोई समस्या रूकावट नहीं बनती। यही कारण था की आखिरकार कविता को उसके पिता ने साई हॉस्टल भेज दिया। जहां कोच जसवंत और राज सिंह ने उसके हुनर को पहचान कर मुक्केबाजियों की बारीकियों से अवगत कराया।
उनकी मां सुमित्रा बताती हैं कि छोटा बेटा पवन बॉक्सिंग में कई पदक जीत चुका है। उसने कविता को बॉक्सिंग के रिंग में उतारने की जिद पकड़ रखी थी। वह पहले इस पक्ष में नहीं थी लेकिन धार्मिक गुरू राधास्वामी के परम शिष्य विमल प्रकाश की सलाह पर उसे इस खेल में महारत हासिल करने के लिए भेज दिया।अभावों और गरीबी में बचपन बिताने के लिए मजबूर रहने वाली कविता का विजयी अभियान 2003 से शुरू हुआ। पिछले साल उसने आगरा में राष्ट्रीय चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता था। इस चैंपियनशिप में मेरी कॉम ने स्वर्ण, एल। सरिता देवी ने और एन। उषा ने रजत और छोटू लौरा ने कांस्य पदक जीता था।
अपने समय में कबड्डी के बेहतरीन खिलाड़ी रहे आ॓मप्रकाश की पुत्री कविता का जन्म 15 अगस्त, 1988 को हुआ है। उसने जाट कॉलेज, हिसार से स्नातक की डिग्री हासिल की है। हालांकि इन दिनों ट्रेनिंग में व्यस्त होने के कारण स्नातकोत्तर की डिग्री नहीं ले पा रही है। पिछले दिनों वियतनाम में 64 किलोग्राम भार वर्ग में अपनी प्रतिद्वंद्वी कजाकिस्तान की खासेनोवा सौदा को 8:4 से शिकस्त देने वाली कविता के कोच जसवंत सिंह का मानना है की वह रिंग में दिमाग से लड़ती है। उसकी इच्छा शक्ति जबरदस्त रूप से मजबूत है। यही कारण है कि उसने सही तरीके से अपनी ट्रेनिंग पर ध्यान दिया तो वह दिन दूर नहीं जब 2012 में पदक जीत कर देश का नाम रोशन कर सकती है।
11/08/2009
पंकज सिंह की कविता संग्रह 'नहीं' की समीक्षा
नहीं से हां तक की संभावना
वर्तमान दौर की जद्दोजहद और भविष्य को एक नए आयाम देने या पहुंचाने के दिवास्वप्न के इर्द-गिर्द के शब्द ही पंकज सिंह की कविताओं का यथार्थ है। यथार्थ की द्वन्द्वात्मकता को कविता के रूप में ढाल कर व्यापक अनुभव के दायरे और मनुष्य की आकांक्षा और संभावना को सामने लाने का काम कविता संग्रह ‘नहीं’ के जरिए किया गया है। तभी तो कविता ‘वहीं से’ में वह कहते हैं, ‘कौन विश्वासघात करता है/ कौन चुप रह गया था पेशेवर जल्लाद की तरह सर्द/सीधी आंखों घूरता हुआ/कौन था पाश्चाताप को जाहिर न करता।’
पंकज सिंह की इन 61 कविताओं की दृष्टि संपन्नता और आशय इन्हें कोरे नकार की निष्फलता से बचाकर संवेदना की उस मनभूमि में ले जाते हैं जो ‘नहीं’ की पवित्र दृढ़ता से अनंत संभावनाओं की प्रक्रिया और उसकी सहज-अबाध परिणतियों के प्रकट होते जाने की आश्वस्ति देती है। ‘उन्हीं पुराने शब्दों को’ कविता की पंक्तियां हैं, ‘आखेटक की हिंसा में सिर्फ आखेट नहीं करता/समयता के बियाबान में आखेटक को भी/राख करती जाती है उसी हिंसा/कोई नहीं बताता कब तक/मुक्ति के विज्ञान में रक्ताभ/अकेले उपकरण सी निनाद करेगी/प्रतिहिंसा।’ अनुभव-अनुकूलित शिल्प का सुघड़पन से सुसज्जित कवितायें बेबाक होकर वर्तमान समय से साक्षात्कार कराने का माद्दा रखती हैं।
'हम वापस लौटते हैं जाने कहां से कहां/एक फरेब की चोट खाये दूसरे फरेब में/ठहरे काले पानी वाली दु:स्वप्न में/हम कहते हैं खुद में हमें पुरानी वेबकूफियों से बचना/आ गये हैं इसी तरह किस्त-दर-किस्त/खुद को निपटाकर।’
छल-प्रपंचों और दुनियादारी की वस्तुस्थिति को पाठकों के सामने रखती हुई कविता ‘देखते हुए छिली त्वचा को’ में बखूबी वे कहते हैं, ‘हम वापस लौटते हैं जाने कहां से कहां/एक फरेब की चोट खाये दूसरे फरेब में/ठहरे काले पानी वाली दु:स्वप्न में/हम कहते हैं खुद में हमें पुरानी वेबकूफियों से बचना/आ गये हैं इसी तरह किस्त-दर-किस्त/खुद को निपटाकर।’ और जब वे टीवी चैनलों के पत्रकारों को आत्मविहीन होकर खबरें परोसते देखते हैं तो कुछ यूं काव्य की पंक्तियां सामने आती हैं, ‘कालाहांडी अगरतला तरन-तारन मंचरियाल गये/हिंदी-अंग्रेजी के पत्रकार दनदनाते/खूब हुई लिखी-पढ़ी आवाजाही/राष्ट्रीय पुरस्कार सनसनीखेज समाचार तेज टीवी चैनल/तेज तेज हुआ हुआ हुआ/हुआं हुआं।’
पंकज सिंह बखूबी जानते हैं कि जिस लोकतंत्र में भिखमंगों का राजसी गीत गाया जाता है, वहां कपास और गेहूं उपजाने वाले किसान आत्महत्या करते हैं। वे जानते हैं कि यहां की स्त्रियां और बच्चे जमकर भूधराकार चक्की में पिस रहे हैं। वह यह भी जानते हैं कि किनके हाथ उस निर्मम चक्की को चलाते हैं। कविता संग्रह ‘नहीं’ की सभी कवितायें जीवंत अनुभव-राशि के अंतर्विरोधों और द्वन्द्वों में शासित विडम्बनाओं और कई प्रकार के सामूहिक बोध के समुच्चय हैं जो निजी आवेग-संवेग, प्रेम और आसक्ति, आघात-संघात और अवसाद-विषाद के व्यापक फलक के तौर पर सामने आए हैं। अधिकतर कवितायें अतीत की स्मृतियों और भविष्य की व्यापक संभावनाओं को बेहद सुंदर कोलाज है जिनके अनेक रंग इस तरह घुले-मिले हैं कि तर्क और विवेक की शक्लें अख्तियार कर सार्वजनिक संलाप का हिस्सा मालूम होती है।
नहीं (कविता संग्रह)
पंकज सिंह
मूल्य : 175 रूपए
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा.लि। ए -बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002
आशा पांडे - फ्रांस का सर्वोच्च सम्मान
फ्रांस का सर्वोच्य नागरिक सम्मान ‘लिजन दि ऑनर’ से सम्मानित होने वाले सत्यजित राय, शिवाजी गणेशन, अमिताभ बच्चन, रविशंकर और आरके पचौरी कि लिस्ट में पहली बार किसी भारतीय महिला का नाम शुमार हुआ है। मूल रूप से कुमाऊं के अल्मोड़ा जनपद के पाटिया गांव की निवासी प्रो। आशा पांडे का जन्म देहरादून के क्लेमनटाउन में हुआ, जिन्हें इस साल फ्रांस सरकार इस सम्मान से सम्मानित कर रही है।
राजस्थान विश्वविघालय में प्राध्यापक आशा दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविघालय के फ्रैंच भाषा के पहले बैच की पोस्ट ग्रेजुएट हैं। उन्होंने जेएनयू से ही पीएचडी की उपाधि भी प्राप्त की है। प्रो। पांडे वर्तमान में राजस्थान विश्वविघालय जयपुर में ड्रामाटिक्स विभाग की अध्यक्ष व यूरोपियन स्टडीज विभाग में प्रोफेसर हैं। प्रो. पांडे को यह सम्मान भारत-फ्रांस रिश्तों को प्रगाढ़ करने तथा राजस्थान में फ्रैंच भाषा के प्रसार के लिए प्रदान किया जाएगा। 1973 बैच के आईएएस अफसर अशोक पांडे से शादी करने वाली आशा अक्सर अपने गृह प्रदेश और गृह नगर जाते रहती हैं।
1982 में डॉ. पांडे ने इंडो-फ्रैंच कल्चरल सोसायटी का गठन किया और फ्रैंच भाषा पढ़ानी शुरू की। पिछले 27 सालों से फ्रेंच के प्रचार-प्रसार में जुटी हुई हैं। उनके ही प्रयासों का फल है कि राजस्थान में करीब सात हजार छात्र यूरोपियन भाषाओं का अध्ययन कर रहे हैं। बताते हैं कि जयपुर में कुछ स्कूल और दस कालेज फ्रेंच से जुड़े विभिन्न कोर्स छात्र को उपलब्ध करा रहे हैं। इतना ही नहीं, राजस्थान विश्वविघालय भी छात्रों को पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स फ्रेंच में उपलब्ध कराया है।
डा। आशा पांडे का मानना है कि फ्रेंच भाषा सीखने से छात्रों को जहां रोजगार मिल रहा है, वहीं फ्रांस कि संस्कृति से रूबरू होने पर उनके व्यक्तित्व में निखार आता है, जिससे जीवन को नई दिशा मिलती है। यही कारण है कि यहां पढ़ाई करने वाले छात्रों को विभिन्न वर्कशापों के साथ फ्रेंच थियेटर और गोष्ठी में शामिल किया जाता है। आशा बतातीं हैं कि कुछ महीने पहले फ्रांस दूतावास के अधिकारी उनसे बायोडाटा मांगा था लेकिन उन्हें इस बात का तनिक भी भान नही था कि उन्हें इस सम्मान से नवाज जाएगा।
जब उन्हें सम्मान मिलने कि जानकारी मिली तो सबसे पहले अपने पति को इस बात कि जानकारी दी लेकिन दीवाली आ जाने के कारण और किसी को बता नहीं पाई। उनके पिता देहरादून के क्लेमनटाउन में भारतीय सेना की नेशनल डिफेंस अकादमी में थे। जब यह अकादमी पुणे खड़गवासला स्थानांतरित हो गई तो उनका परिवार भी खड़गवासला चला गया। डॉ. आशा की प्राथमिक शिक्षा वहीं के केंद्रीय विघालय में हुई।
मुद्दा आतंकवाद का
अमेरिका और भारत की विदेश नीति एक जैसी नहीं है लेकिन अमेरिका पर दबाव तो है ही। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वैश्विक आतंकवाद के मुद्दे पर विश्व के अधिकतर देश दबाव में हैं। कुछ हद तक यह दबाव महज दिखावा है। पाकिस्तान और भारत के मुद्दे पर अमेरिका दोनों को संतुष्ट कर रहा है।
विश्व आतंकवाद के मुद्दे पर सभी देश अलग-अलग दिख रहे हैं और सबकी अपनी-अपनी समस्याएं हैं। जहां तक भारत और पाकिस्तान की बात है, अमीर सईद को ट्रायल पर नहीं लिया जा रहा है। हर कोई जानता है कि उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं है। उसके खिलाफ यदि चार्ज लाया भी गया तो उसे सबूतों के अभावों में बरी कर दिया जाए गा। इस कारण पाकिस्तान को उसके खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने में नहीं बन रहा है।
आतंक के मुद्दे पर हमें अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। खुद अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसके खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी, अपनी नीतियों में बदलाव लाना होगा। जब आतंकवाद के मुद्दे पर हम दूसरे देशों की सहायता करेंगे तभी कोई हमारे कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए आगे आएगा .
आतंकवाद के मुद्दे पर अमेरिका चाहता है कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा सेना का साथ मिले। वह यह भी चाहता है कि एक ओर जहां पाक सेना तालिबान के खिलाफ अपनी जमीन पर लडाई लड़े वहीं अफगानिस्तान की ओर से अमेरिकी सेना दवाब बनाए । लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। अफगानिस्तान मामले में अमेरिका भारत से सैन्य सहायता चाहता है जिसे वह नहीं दे रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबकी अपनी-अपनी समस्याएं हैं। कोई भी देश किसी भी देश के लिए खासकर आतंकवाद के मुद्दे पर सामने नही आना चाहता।
अमेरिका में जब 9/11 की घटना हुई थी तब क्या भारत उसके साथ आया था, नहीं न। तो फिर मुंबई कांड सहित और आतंकवादी घटनाओं के बाद वह आपके साथ हो,यह कैसे हो सकता है। कई बार हाफिज सईद के खिलाफ यूए न में उस पर कार्रवाई करने का मामला सामने आया लेकिन चीन और रूस इसके खिलाफ खड़े थे। इस मामले पर वीटो लगाने की धमकी भी दे रहे थे। हालांकि बाद में सभी एकजुट भी हुए । दूसरे देश के साथ आतंकवाद के मुद्दे पर कैसे कोई हमारा साथ देगा, जब हम किसी की कोई सहायता नही करेंगे। हम अपेक्षा करते हैं कि आतंकवाद के मुद्दे पर दूसरे देश हमें सहायता करें लेकिन हमने किसकी सहायता की, जो हमारा कोई करेगा। अल-कायदा और तालिबान को खत्म करने के मामले में अमेरिका की किसी ने सहायता नहीं की। सिर्फ नेटो ही उसके समर्थन में सामने आया। अफगानिस्तान में उसके साथ कोई यूरोपियन देश भी शामिल नहीं है। अमेरिका चाहता है कि वहां भारत अपनी फौज भेजे लेकिन हम वहां फौज नहीं भेज रहें है क्योंकि हमारा वहा कोई इंटरेस्ट नहीं है। तालिबान के खात्मे से हमारा फायदा तो है, बावजूद इसके लिए मददगार नहीं बन रहे हैं।
यहां कहने को कुछ और करने की जब बारी आती है तो कुछ और किया जाता है। 9/11 के बाद हमने अमेरिका से कहा कि हम आपको सभी सहायता मुहैया करेंगे लेकिन कुछ नहीं किया गया। वह पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई तभी करेगा जब उसका उससे कोई मतलब निकलेगा। अमेरिका को लगता है कि लश्करे तैयबा अब ज्यादा ताकतवर हो गया है और अल-कायदा कमजोर हो रहा है। अगर लश्कर, अल-कायदा की तरह बन रहा है तो उनकी रणनीति या भूमिका क्या होगी, यह सोचने वाली बात है। यदि ये आतंकवादी संगठन अमेरिका और भारत पर आक्रमण कर सकते हैं तो क्या वे दूसरे यूरोपीय देशों पर भी हमले कर सकते हैं।
इन दिनों पाकिस्तान भी इस मामले पर काफी दवाब में है। वहां भी आतंकवादी हमले हो रहे हैं। ऐसे में कैसे भारत पर होने वाले आक्रमण को लेकर पाकिस्तान पर दबाव बनाया जा सकता है। इसके लिए वहां हम सेना नहीं भेज सकते, डरा नहीं सकते। यदि पाक के भीतर इतनी संख्या में आतंकी हमले नहीं होते तो हम दबाव बना सकते थे। वहां की पूरी सेना तालिबान से निबटने में लगी है। बहरहाल, आतंक के मुद्दे पर हमें अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। खुद अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसके खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी, अपनी नीतियों में बदलाव लाना होगा। जब आतंकवाद के मुद्दे पर हम दूसरे देशों की सहायता करेंगे तभी कोई हमारे कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए आगे आएगा।
--अजय दर्शन बेहरा (विदेश मामलों के जानकार)
पलायन के पक्षधर अर्थशास्त्री :सीता प्रभु
भारत ही नहीं वरन पूरे विश्व के अधिकतर देशों में जिस कदर इंजीनियर, डॉक्टर सहित प्रबंधन विशेषज्ञ पलायन कर रहे हैं, वास्तव में चिंता की बात है। ऐसे में, यूए नडीपी द्वारा जारी रिपोर्ट ने नई बहस खड़ी कर दी है। यही कारण है कि मानव विकास रिपोर्ट 2009 के जारी होने के बाद भारत स्थित असिस्टेंट कंट्री डायरेक्टर के। सीता प्रभु सुर्खियों में है।
करीब 307 मिलियन लोग ऐसे हैं जो अपने जन्मस्थान से कहीं दूर रह रहे हैं।
मुंबई विश्वविघालय में विकासशील अर्थशास्त्र पढ़ाने वाली सीता प्रभु की रूचि शुरू से ही विकास के मुद्दे को लेकर रही है। भारत सहित विदेशों के विश्वविघालय में अतिथि प्रोफेसर वह रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, विभिन्न राज्य सरकार सहित कई स्वयंसेवी संस्थाओं में बतौर आर्थिक सलाहकार रही है। आधे दर्जन से अधिक पुस्तकों की लेखिका सीता रिपोर्ट को लेकर मानती हैं कि अधिकतर प्रोफेशनल्स को बेहतर मौका नहीं मिलता। इस कारण उनका पलायन करना लाजिमी है। वह बताती हैं कि भारत के विभिन्न राज्यों से दूसरे राज्यों में करीब 42 मिलियन लोग पलायन करने के लिए मजबूर हैं।
गौरतलब है कि करीब 307 मिलियन लोग ऐसे हैं जो अपने जन्मस्थान से कहीं दूर रह रहे हैं। सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि 1950 से लेकर 2000 तक अमेरिकी विश्वविघालयों में विदेशी छात्रों की संख्या में 1।3 फीसद का इजाफा हुआ है।मुंबई विश्वविघालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर करने वाली सीता मृदुभाषी होने के कारण सहज ही आसपास के लोगों को आकर्षित कर लेती हैं। अर्थशास्त्र में ही पीए चडी करने वाली यह अर्थशास्त्री न सिर्फ यूए नडीपी में असिस्टेंट कंट्री डायरेक्टर है बल्कि वरिष्ठ सलाहकार भी हैं। वह राष्ट्रीय महिला आयोग से जुड़ी रही हैं और मानती हैं कि आम आदमी के विकास और उसकी रूपरेखा तय करने में यूए नडीपी द्वारा जारी होने वाली मानव विकास रिपोर्ट काफी अहम भूमिका निभाती है। यही कारण है कि यह रिपोर्ट हमेशा ही नीति-निर्धारकों को विचार करने के लिए मजबूर करता है।
2009 में मानव विकास रिपोर्ट को लेकर वह बताती है कि पलायन से सकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है। जाहिर सी बात है कि जहां प्रोफेशनल्स के पलायन से उन इलाकों को फायदा तो होता ही है जहां वे काम करने के लिए जाते हैं। वर्तमान दौर में के सीता प्रभु समाज के उन लड़कियों और महिलाओं के लिए उम्मीद की किरण के तौर पर उभरी हैं, जो समाज को नई दिशा देने का काम करती हैं। जहां अधिकतर बैंकिंग, प्रबंधन सहित विदेश सेवा प्रमुख के तौर पर सामान्य महिला पदों को सुशोभित कर देश, दुनिया और समाज को नई दिशा दे रही है, वहीं प्रोफेशनल्स के पलायन और प्रवासियों को लेकर रिपोर्ट जारी कर इस महिला अर्थशास्त्री ने बहस के एक नए मुद्दे को जन्म दिया है।
10/28/2009
उत्तर आधुनिकता और जातीय अस्मिता
कृष्णदत्त पालीवाल ने अपनी पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकतावाद और दलित विमर्श’ के जरिए विमर्श, दलित चिंतन और प्रगति के फल पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किया है। पिछले तीन दशकों में उत्तर-आधुनिकतावादी नव चिंतन का जो पूरा बिंब उभरता है, उसमें वैचारिक कलह बहुत है। उत्तर-आधुनिकतावाद के मूल तत्व में बहुलतावाद तथा बहु-संस्कृतिवाद, विकेंद्रीयता, क्षेत्रीयता, लोकप्रिय संस्कृति, परा-भौतिकवाद पर अविश्वास, नारीवाद, दलित आंदोलन, महान आख्यानों का अंत, विचारधाराओं का अंत, शाश्वत साहित्य सिद्धांतों का पतन, विरचनावाद कर्त्ता का अंत समाहित है। बहुराष्ट्रीय निगमों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मांग के अनुकूल पूरी शिक्षा व्यवस्था को ढाला जा रहा है, बदला जा रहा है।
पालीवाल वर्तमान परिदृश्य पर चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि यह ‘मैनेजमेंट युग’ का ही प्रभाव है कि साहित्य-कला, दर्शन, इतिहास और समाजशास्त्र की कद एकदम कम हो गई है। ‘लेखक’ का अंत हो गया है। ‘विचार’ का अंत हो गया है। ‘मूल्यों’ पर आधारित पूरी समाज-व्यवस्था का अंत हो गया है। पुरानी ईस्ट इंडिया कंपनी का यह नया आधुनिकीकरण है, जिसमें तकनीकी क्रांति की विजय यात्रा है। आलोचना का दायित्व है कि देश और काल में निरंतर बदलते हुए मनुष्य और संदर्भ को परिभाषित करे। नया दलित-विमर्श समतामूलक, शोषण मुक्त, आत्मसम्मानपूर्ण और छुआछूत रहित समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देता है। लोक जागरण के नाम पर नए किस्म के अंधकार युग को लेकर उनका मानना है कि इसमें न तुलसी के लिए स्थान है, न कबीर के लिए , न गांधी-अंबेडकर के लिए । दलित-साहित्य-विमर्श आज के साहित्य की यह राजनीति है, जिसमें धर्मवीरों की गुर्राहट है और नामवरों की लिए मुश्किल।
पालीवाल पुस्तक के जरिए सवाल करते हैं कि दलित साहित्य और गैर दलित साहित्य, अगड़ी जातियों द्वारा रचा गया वर्चस्ववादी साहित्य और पिछड़ी जातियों द्वारा सृजित पीड़ा-यातना का साहित्य जैसे विभाजन को मानने और मनवाने के प्रयास के पीछे दलित साहित्य की राजनीति का ‘हिडन एजेंडा’ क्या है? दलित साहित्य की राजनीति करने वालों ने ऐसा माहौल बना दिया है कि कई मुद्राओं में यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या दलित साहित्य केवल दलित ही लिख सकते हैं-अन्य गैर दलित क्यों नहीं? यहां ‘केवल’ पर विवाद है, भोगे हुए यथार्थ की प्रामाणिक अनुभूति और अनुभूति की ईमानदारी पर नहीं।
पुस्तक की भूमिका ‘विखंडन का विखंडन’ में कृष्णदत्त पालीवाल अपनी बात रखते हैं। उनका मानना काफी हद तक सही है कि हम एक ऐसा चुनौती भरे समय में जीवित हैं, जिसमें सभ्यता, संस्कृति, धर्म, राजनीति, जातीय अस्मिता की तलाश जैसी जटिल अवधारणाओं का प्रयोग जरूरत से ज्यादा हो रहा है। बहरहाल, उत्तर आधुनिक परिदृश्य में दलित साहित्य एक तरह से क्रांतिकारी विचार-प्रवाह की निष्पत्ति की है। पिछड़े, अति पिछड़े, वंचितों, उपेक्षितों और परिधि पर यातना भोगते विशाल जन-समाज को इस साहित्य ने शब्द और कर्म के समाजशास्त्र की आ॓र प्रवृत्त किया है।
साभार : राष्ट्रीय सहारा
10/19/2009
कुत्ते या आदमी : एक कविता
10/18/2009
ग्रीन टैलेंट : सौमिता बनर्जी
सौमिता दुनिया के उन पंद्रह युवा वैज्ञानिकों में शामिल थीं, जो 43 देशों के 156 प्रतिभागियों में से चुने गए थे। उन्होंने स्कूली शिक्षा नागपुर में पाई और दसवीं व बारहवीं कक्षा में काफी अच्छे अंक हासिल किये। पर्यावरण को लेकर दिलचस्पी बढ़ने को लेकर, वह बताती हैं कि अंडरग्रेज्युएट के दौरान आनुवांशिक विज्ञान से प्रभावित हुई और कालांतर में बायोटेक्नोलॉजी की उच्च शिक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया। वह फिलहाल नागपुर स्थित नेशनल इनवारामेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट¬ूट से पीएचडी की डिग्री हासिल कर रही है।
पीएचडी की डिग्री हासिल करने को लेकर वह कहती है कि उन्हें ढर्रे की जिंदगी पसंद नहीं। वह हर दिन अपने जीवन के साथ-साथ कार्य में बदलाव चाहती है। रिसर्च के कारण हर दिन नए प्रयोग करने के लिए वह स्वतंत्र हैं। सौमिता का शोध बोयोइथेनॉल को लेकर है, जिससे इको फ्रेंडली के लिए लाभदायक हो सकता है। इसका प्रयोग र्इंधन के तौर पर किया जा सकता है। वैकल्पिक र्इंधन के तौर पर बायोमॉस के इस्तेमाल पर उसका शोध जारी है। पर्यावरण को लेकर उसका मानना है कि जलवायु परिवर्तन सबके लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
साभार : राष्ट्रीय सहारा
9/24/2009
गिद्ध गायब और अब चमगादड़ों की बारी
पूरे इलाके में इन चमगादड़ों को पकड़ने के लिए आमतौर पर ताड़ के पेड़ों पर चढ़ने वाले एक जाति विशेष के परंपरागत लोगों को लगाया गया है। ये ताड़ के पेड़ पर चढ़कर ताड़ी उतारने के साथ-साथ जाल लेकर चमगादड़ों को भी फंसाकर नीचे उतरते हैं। चमगादड़ों को फंसाने के बाद अगर ग्राहक तैयार मिला तो जिंदा ही बेच डालते हैं लेकिन अगर ग्राहक तत्काल नहीं मिला तो फिर इन्हें मार डालते हैं। ताड़ के पेड़ पर से चमगादड़ पकड़कर इनको मारकर तेल और हड्डी निकालकर रखते हैं तथा मांस को खा जाते हैं। तेल जब ढ़ाई सौ ग्राम से ज्यादा जमा हो जाता है तो फिर पांच सौ रुपये किलो तक बेच देते हैं। हड्डी भी जमाकर रखते हैं और ग्राहक भी मरने वालों के गावों में ही आते हैं। इसके ग्राहक बाहर देश से आते हैं। एक सौ रुपये में चमगुदड़ी और पांच सौ रुपये में बादुर के खरीददार मिल जाते हैं। चमगादड़ पकड़ने के लिए ये जाल के साथ ताड़ पर चढ़ते हैं और सूखे पत्ते से सटाकर रखते हैं। ज्योंहित खड़-खड़ाहट की आवाज पर चमगादड़ भागकर उड़ते हैं, वे जाल में फंसते चले जाते हैं। किस ताड़ के पेड़ पर चमगादड़ है, इसके लिए पेड़ के नीचे सूक्ष्मता से निरीक्षण किया जाता है और अगर इनका मल दिख गया तो फिर पेड़ पर चढ़कर इनका काम तमाम किया जाता है। चमगादड़ के तेल से दर्द निवारक दवा बनाई जाती है जबकि हड्डियों को पीसकर शक्तिवर्द्धक दवा बनती है।
हालाँकि चमगादड़ के तेल या हड्डी से कोई एलोपैथिक दवा तो नहीं बनती है लेकिन झारखंड के आदिवासी गांवों में ऐसी मान्यता है कि चमगादड़ का रक्त और मांस अस्थमा रोग में लाभकारी होती है। यहाँ के लोगों का कहना है कि चमगादड़ों को यहां से बांग्लादेश के मार्फत इंडोनेशिया ले जाकर महंगे दामों में बेचा जाता है। एक छोटे चमगादड़ की कीमत वहां तीन पौंड तक होती है। इंडोनेशिया में परंपरागत रूप से बंद का ब्रेन, भालू का पांव जैसे अजीबोगरीब वस्तुओं को भी लोग खाते हैं। स्तनपायी चमगादड़ के विषय में यहां यह मान्यता है कि इसका हृदय खाने से दमा रोग ठीक होता है।
9/23/2009
पाखंड नहीं है सादापन : गोविन्दाचार्य
सादगी तर्कसंगत और प्रशंसनीय है, लेकिन कुछ लोगों की सादगी आम लोगों को महंगी पड़ जाती है और सामान्य लोगों के लिए कष्टकारी हो जाती है। ऐसे में सामान्य लोगों को कष्ट से बचाने के लिए सादगी का परित्याग किया जाना चाहिए। आमजन को उनकी सादगी महंगी पड़ रही है जिन्हें विशेष सुरक्षा मिली है। वह अपनी सादगी से आम आदमी को कष्ट पहुंचाते हैं। प्रशासन को चाहिए कि सादा, सरल और छोटा कारगर कदम कैसे हो, इस बार अमल किया जाए।
संथानम कमीशन ने इस मामले में काफी कुछ कहा है कि सस्ता और सुलभ न्याय कैसे हो, इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।एक तरफ शिक्षा को महंगा किया जा रहा है, तीस करोड़ लोगों की जरूरत के मुताबिक कानून बनाया जा रहा है और बात सादगी की हो रही है, तो यह पूरी तरह विरोधाभास है। इससे जनहित तो नहीं सधेगा, राजनीति भले सध सकती है। आप जनमानस के साथ जाएं तो बात बने।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी त्याग व सादगी का वैसा ही महत्व है। आज भी बनारस का विधायक पैदल ही घूमता है, अंगरक्षक तक नहीं है। इंदौर का लक्ष्मण और आंध्र प्रदेश का जयप्रकाश बिना खर्च किए जनता के बदौलत प्रतिनिधि चुना जाता है। आज भी उनकी सादगी काबिले-तारीफ है।स्वस्थ स्पर्धा हो और केवल राजनीतिक कारणों से सादगी को अपनाया जाए, यह गलत है। साधना और शुचिता का राजनीतिक जीवन में आज भी महत्व है, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक पैंतरेबाजी गलत है। पाखंड इस बात का प्रमाण है कि समाज में विवेक जिंदा है और गुणों का महत्व है।
9/18/2009
ब्लॉग से पोर्टल तक: कुमुद सिंह
9/15/2009
तमाम भाषाओं की रचनाएं हिंदी में : बृजेंद्र त्रिपाठी, संपादक, समकालीन भारतीय साहित्य
नए संचार माध्यमों के जरिए पाठक वर्ग काफी हद तक प्रभावित हुआ है लेकिन तमाम भारतीय भाषाओं की रचनाएं हिंदी पाठकों के द्वारा पढ़ी जा रही हैं। करीब 24 भारतीय भाषाओं के साथ लोक भाषाओं की एक इकाई के तौर पर छपने वाली पत्रिका के जरिए पाठक आम जनमानस से रूबरू होता है। जब दो दशक पहले नए संचार माध्यम सामने आ रहे थे तो काफी हल्ला मचा था कि लिखित शब्दों की दुनिया खत्म हो जाएगी। लेकिन हुआ इसका उलट, पाठक और बढ़ गए। कई नए प्रकाशक सामने आए। लिखित शब्दों की एक अलग दुनिया है। हालांकि यह और बात है कि नए संचार माध्यमों ने पाठकों का समय चुरा लिया है लेकिन पढ़ने की प्यास अब भी बुझी नहीं है।
नए संचार माध्यमों ने पाठकों का समय चुरा लिया है लेकिन पढ़ने की प्यास अब भी बुझी नहीं है।
तमाम साहित्यिक पत्रिकाएं निकल रही हैं। उनमें से पचास तो ऐसी हैं ही जो बेहतर सामग्री पाठकों को मुहैया करा रही हैं। जहां तक ई-पत्रिकाओं की बात है तो कंप्यूटर और इंटरनेट की पहुंच कितने फीसद लोगों तक है, इसके आंकड़े ढूंढने होंगे। हालांकि एक पाठक वर्ग है लेकिन देश के अधिकतर पाठक अभी इससे दूर ही हैं। पिछले कुछ समय से स्त्री, दलित और आदिवासी से संबंधित विमर्श साहित्य जगत में जारी है। इससे संबंधित विमर्श न सिर्फ हिंदी में चल रहा है बल्मि तमाम भारतीय भाषाओं में रचनाएं लिखी जा रही हैं। आदिवासियों के विस्थापन का लेकर काफी सशक्त रचनाएं आ रही हैं। करीब सौ से भी अधिक जनजातीय भाषाओं की रचनाएं हिंदी में पढ़ी जा रही हैं और इनका जबरदस्त पाठक वर्ग है।
विमर्श नहीं आंदोलन की जरूरत : रमेश उपाध्याय, संपादक, कथन
हिन्दी का भविष्य अच्छा है लेकिन आंदोलन की जगह साहित्य को महज विमर्श में तब्दील किया जाना गलत है। हिंदी के पाठक लगातार बढ़ रहे हैं। हिंदी के अखबारों और पत्रिकाओं के पाठकों में लगातार इजाफा हो रहा है। अनुदान भी मिलने लगे हैं, जो बेहतर भविष्य का संकेत है।
उत्तर आधुनिकतावाद के दौर में विमर्श को चलाया गया, वह गलत है।
इंटरनेट के कारण एक दुनिया के लोग दूसरी दुनिया से जुड़ रहे हैं। मैंने अपने ब्लॉग पर उदय प्रकाश और वर्धा विश्वविघालय को लेकर लिखा भी था कि सार्थक बहस चलाई जाए। इस युग में इंटरनेट इतना बड़ा साधन है लेकिन यहां भाषा काफी खराब लिखी जा रही है जिस कारण प्रबुद्ध पाठक इससे विरक्त हो रहे हैं। जहां तक साहित्यिक पत्रिकाओं का सवाल है, निराशा होती है क्योंकि यहां कोई आंदोलन नहीं है, कोई बहस नहीं है। हिंदी साहित्य की परंपरा आंदोलन की रही है, चाहे वह भक्तिकाल हो, छायावाद हो या नई कहानियों का दौर। आंदोलन चलाया जाना चाहिए।
उत्तर आधुनिकतावाद के दौर में विमर्श को चलाया गया, वह गलत है। स्त्री विमर्श हो या दलित विमर्श, इनके कारण साहित्य सीमित हो गया है। जबकि विमर्श के लिए ग्रामीण महिलाओं का दर्द है, दलित की गरीबी भी है। लेकिन साहित्यकारों ने तो नारी देह को ही विमर्श का मुद्दा बना दिया है। नारी देह को विमर्श से मुक्ति मिलनी चाहिए। इसी तरह दलित विमर्श को जाति तक सीमित कर दिया गया है। उसकी गरीबी को लेकर कोई बात नहीं करता। गांवों की पंचायतों में फैले भ्रष्टाचार साहित्य में कहीं नहीं हैं। साहित्य के दायरे में अब सवाल नहीं उठाया जाता।
हिंदी लेखक भी होंगे बेस्टसेलर :अपूर्व जोशी, संपादक, पाखी
हिन्दी साहित्य का बाजार काफी व्यापक है। पिछले एक साल के दौरान हमारी पत्रिका को आम पाठकों ने जिस कदर सराहा, उससे काफी उत्साहवर्धन हुआ है। मेरा मानना है कि यदि हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं को देखें तो सामग्री का जो स्तर पाठकों तक पहुंचना चाहिए, वह उन तक नहीं पहुंच पा रहा है। साथ ही कोई भी पत्रिका आर्थिक दृष्टि से संबल नहीं हो पा रहा है।
भारत बाजार में तब्दील हो चुका है, उस बाजार को पकड़ने के लिए भाषा भी पकड़नी होगी।
जिस तरह पाठकों का रूझान है उसमें यदि पब्लिशर्स आर्थिक तौर से मजबूत हो जाएं तो एक लाख प्रतियां भी कम ही होंगी। बड़े घराने जो साहित्यिक पत्रिकाएं निकालते भी हैं उनकी मार्केटिंग काफी कमजोर है। इसके अलावा अखबारों या महिलाओं से संबंधित पत्रिकाओं जैसे विज्ञापन साहित्यिक पत्रिकाओं को नहीं मिल पाते हैं। आम पाठकों तक पत्रिका को पहुंचाने का सामर्थ्य भी इन पाठकों के पास नहीं है। आज का भारत बाजार में तब्दील हो चुका है, उस बाजार को पकड़ने के लिए भाषा भी पकड़नी होगी। हिंदी के प्रकाशन जगत में अंग्रेजी प्रकाशकों का आना मायने रखता है। क्योंकि वे उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो विज्ञापन ला सकता है। उनका मिशन पत्रिका चलाना नहीं है बल्कि व्यापार करना है। ‘हंस’ या ‘कथादेश’ का प्रकाशन व्यापार करने के लिए शुरू नहीं हुआ। वैसे मुझे बाजार में हिंदी के दखल को देखते हुए लगता है कि जल्द ही वह समय आएगा जब हिंदी लेखकों की रचनाएं भी बेस्ट सेलर होंगी।
लेखक ही हो गए हैं पाठक : हरिनारायण, संपादक, कथादेश
हिन्दी पट्टी की जनसंख्या और साहित्यक पाठकों को देखें तो स्थिति काफी निराशाजनक है। किसी भी लघु पत्रिका का पाठक पांच- छह हजार से अधिक नहीं है। लघु पत्रिकाएं काफी सीमित संख्या में छप रही है। खाने-पीने वाले घरों के बच्चों खासकर कॉन्वेंट में पढ़ने वाले बच्चों में तो हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में कतई नहीं पढ़ते, उनकी कोई दिलचस्पी ही नहीं है। उन बच्चों का मन हिंदी सीरियल और फिल्में देखने में नहीं लगता। वर्तमान दौर में पत्रिकाएं अपने सीमित साधनों के बदौलत निकल रही हैं। यदि कोई सरकारी विज्ञापन मिल भी गया और दो-ढाई सौ प्रतियां छप भी गईं लेकिन उसके पाठकों वर्ग का दायरा नहीं बढ़ा तो क्या फायदा।
हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदी अखबारों के पाठकों की संख्या में इजाफा हुआ है लेकिन लघु पत्रिकाओं की स्थिति में परिवर्तन नहीं हुआ है। लोगों की जिंदगी में लघु पत्रिकाएं, अखबारों की तरह जरूरत नहीं हंै। लेखक ही पाठक हो गए हैं। यहां तक कि विश्वविघालयों में पढ़ाने वाले शिक्षक या विभिन्न संस्थानों में काम करने वाले हिंदी अधिकारी तक हिंदी की साहित्यिक पत्रिका नहीं खरीदते हैं।
लिखित शब्दों का विकल्प नहीं : रविन्द्र कालिया, संपादक, नया ज्ञानोदय
इससे भी इतर बात यह है कि अधिकतर पत्रिकाओं के पास न तो कोई सोर्स है और न ही बड़ा नेटवर्क। पर अब भी बाजार में लघु पत्रिकाएं कम नहीं हैं। हजार पाठक तो हर पत्रिका के हैं ही लेकिन सही बाजार न हो तो लोगों तक पत्रिकाएं नहीं पहुंच पाती हैं। हिंदी के पाठकों की कमी नहीं है। जहां तक हिंदी ब्लॉग की बात है तो यह किसी भी पत्रिका के लिए चुनौती नहीं है। क्योंकि लिखित शब्दों का कोई विकल्प नहीं है।
बुजुर्ग हो रहे हैं गंभीर श्रेणी के पाठक : संजीव, कार्यकारी संपादक, हंस
वर्तमान दौर में हिंदी भाषा की स्थिति काफी खराब होती जा रही है। भाषा लगातार डीजेनरेट हो रहा है। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होता जा रहा है। जहां अखबार सिर्फ तीन रूपए की चीज है और एक बार पढ़ने के बाद उसकी अनिवार्यता खत्म हो जाती है वैसी स्थिति साहित्यिक पत्रिकाओं की नहीं होती। उसे पढ़ने के लिए जहां समय देना होगा, वहीं चिंतन भी अनिवार्य है।
वर्तमान में कहीं कोई विमर्श नहीं हो रहा है
जिस तरह फास्ट फूड ने पौष्टिक भोजन को हाशिए पर ला खड़ा किया है, उसी तरह तात्कालिकता, सूचना और मनोरंजन ने गंभीर चिंतन को धकिया कर बाहर कर दिया है। इसमें दूरदर्शन के अलावा निजी चैनल सहित तमाम संचार माध्यम शामिल हैं। वर्तमान में कहीं कोई विमर्श नहीं हो रहा है कि ऐसे में क्या किया जाए। ब्लॉग या दूसरे संचार माध्यमों के जरिए जो एक नई बात सामने आ रही है कि सुनाना सब चाहते हैं लेकिन सुनना कोई नहीं चाहता। विमर्श की पत्रिकाओं को लेकर कहना काफी मुश्किल है। पाठकों की कई श्रेणियां है लेकिन गंभीर पाठकों की श्रेणी लगातार बुजुर्ग होती जा रही है। एक्का-दुक्का ही युवा वर्ग के पाठक सामने आ रहे हैं जिसे लेकर चिंता लाजिमी है।
9/13/2009
राज्यों की राजनीति की रपटीली राहें
आज मुल्क की राजनीति दलितों के सवालों पर, अल्पसंख्यकों के मसलों पर, आदिवासियों के सवाल पर, पिछड़ों से जुड़े मसलों पर जितनी सचेत और सक्रिय है उतना पहले कभी नहीं थी। आजाद भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जो बदलाव सर्वाधिक आश्चर्यपूर्ण है वह केंद्रीय या राष्ट्रीय राजनीति की जगह क्षेत्रीय या राज्यवार राजनीति का उदय प्रमुख है।
दो खंडों में अरविंद मोहन के संपादन में छपी किताब ‘लोकतंत्र का नया लोक’ देश के विभिन्न राज्यों की राजनीति की बारीक विश्लेषण के साथ-साथ राजनीति शास्त्र के छात्रों और अध्येताओं के अध्ययन को एक दिशा देने में सहायक है, क्योंकि हरेक राज्य की राजनीति के 1990 के दशक से अब तक किस तरह के बदलाव हुए हैं, उनके पीछे सामाजिक गोलबंदी किस तरह की रही है, कैसे काम करती है, इसे समझने-समझाने का काम इस किताब के जरिए किया गया है।
आजाद भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जो बदलाव सर्वाधिक आश्चर्यपूर्ण है वह केंद्रीय या राष्ट्रीय राजनीति की जगह क्षेत्रीय या राज्यवार राजनीति का उदय प्रमुख है।
कुल बीस अध्यायों में बंटे इस किताब को पढ़ने के दौरान यह तथ्य पूरी तरह स्पष्ट होती है कि अगर अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में मंदिर और मंडल वाले मुद्दे आए और राजनीति को काफी बदलने में सक्षम हुए, तो नए दशक के आने के साथ ही तीसरे ‘एम’ अर्थात मार्केट (बाजारवादी आर्थिक नीतियों) का भी धमाकेदार आगमन हुआ। प्रतिद्वंद्विता जितनी बढ़ी है, मुद्दों का विकल्प कम हुआ है और बदलाव वाले विकल्प सीमित हुए हैं।
मुसलमानों ने, दलितों ने, आदिवासियों ने अगर अपनी पहचान और राजनीतिक वजूद कायम रखा है तो यह किसी की दया से नहीं हुआ है। अगर वोट की ताकत न होती, तो इनकी और भी बुरी गत बन गई होती क्योंकि जितने ‘वाद’ आए-गए, उन सबमें इनकी खास चिंता कहीं नहीं थी। आज बिहार की राजनीति में विकास का मुख्य मुद्दा किसी एक आदमी ने नहीं बनाया है, पंजाब की, कश्मीर की अलगाववादी प्रवृत्तियों को लोकतंत्र ने ही सबसे मजबूत जवाब दिया है। अब राज्य सरकारें अपनी जीत या हार के लिए पूरी तरह राष्ट्रीय सरकारों पर निर्भर नहीं हो सकती हैं।
पिछले दो दशकों में हुए सामाजिक (आर्थिक) और उसके परिणामस्वरूप राजनीतिक परिवर्तनों को कोसने के बजाय समालोचना और विश्लेषण के नजरिए से देखना इस किताब की खूबी है। दोनों खंडों में मशहूर चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव और सुहास पल्सीकर ने अपने लेखों के जरिए राष्ट्रीय व राज्यों की राजनीति के विभिन्न आयामों को सामने रखते हुए व्यापक विश्लेषण के जरिए अध्ययन को गहरा बनाते हैं। दोनों खंडों में अरविंद मोहन की भूमिका भी भारत के नए लोकतंत्र की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं।
भारतीय राजनीति की सैद्धांतिक और तथ्यपरक व्याख्या करने वाले इस संकलन में विभिन्न विश्लेषकों ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव परिणामों के आधार पर वहां हो रहे राजनीतिक परिवर्तन की सटीक तस्वीर पाठकों के सामने रखने में कामयाब रहे हैं। खंड एक में आंध्र प्रदेश, केरल, असम, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और बिहार पर विस्तृत चर्चा की गई है वहीं दूसरे खंड में जम्मू-कश्मीर, मध्य प्रदेश, गुजरात, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पंजाब, छत्तीसगढ़, आ॓डिसा, कर्नाटक, पूर्वोत्तर के साथ-साथ राजस्थान की राजनीति के बारीकियों का अध्ययन पेश किया गया है।
बहरहाल, हिंदी में उपलब्ध इस भारी-भरकम राजनीति की किताब उस तथ्य को भी पाठकों को सामने लाने में सक्षम है कि भारत की वर्तमान राजनीति में न तो कोई राष्ट्रीय मुद्दा है, न तो कोई राष्ट्रीय नेता जिसे आम जनता आंख मूंदकर सिरमौर बनाए। और किस तरह राज्यों की राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर आते-आते मतदाताओं की सोच के साथ बदल जाती है कि बड़े दलों से लेकर राजनेताओं को हार का सामना करना पड़ता है।
विनीत उत्पल
9/12/2009
ब्रेड पकौडे नान स्टाप
दिल्ली का पाश इलाका. एक तरफ जेएनयू का ओल्ड कैम्पस तो दूसरी तरफ आईआईटी कैम्पस का विस्तृत इलाका. इसी बीच स्थित है बेर सराय, जहाँ इंजीनियरिंग से लेकर सिविल सर्विस की तैयारी करने वाले छात्र तक, घर से मीलों दूर, हास्टल या छोटे-छोटे कमरे लेकर रहते हैं। उन्हें न तो खाने की फ़िक्र रहती है और न ही सोने की। पढाई और तैयारी का बोझ उन पर इस कदर होता है कि वे चाय बनाने से लेकर खाना बनाने तक में परहेज करते हैं। बस एक ही धुन उनके सर पर होती है, कुछ कर दिखने की। अब जब धुन कुछ कर गुजरने की हो तो जाहिर है किसी और काम में मन कहाँ लगेगा, लेकिन रात बीतते सुबह चाय की तलब और भूख यहाँ रहने वाले छात्रों को 'शर्माजी टी स्टाल' तक पहुँचने के लिए मजबूर करती है।
करीब डेढ़ दशक से संकरी गलियों में बसी चाय और नास्ता की यह दुकान इन छात्रों के लिए न सिर्फ़ भूख और प्यास मिटने बल्कि दिमाग को तरोताजा करने की जगह भी बन चुकी है। सुबह करीब पॉँच बजे से खुलने वाला यह चाय स्टाल देर रात करीब एक बजे तक खुला रहता है। खासतौर पर अपनी चटनी के लिए मशहूर शर्माजी कि इस दुकान के ब्रेड पकौडों का सिविल सेवा की परीक्षा पास कर चुके कितने ही नौकरशाह आज भी नही भूले हैं। आज भी कई बार भूले-भटके वे इन गलियों में पहुँच जाते हैं।
सुबह करीब पॉँच बजे से खुलने वाला यह चाय स्टाल देर रात करीब एक बजे तक खुला रहता है। खासतौर पर अपनी चटनी के लिए मशहूर शर्माजी कि इस दुकान के ब्रेड पकौडों का सिविल सेवा की परीक्षा पास कर चुके कितने ही नौकरशाह आज भी नही भूले हैं।
बेरसराय गाँव की तंग गलियों में यह छोटी सी दुकान चला रहे सीएल शर्मा अतीत को झांकते हुए कहते हैं, 'मैं सरकारी नौकरी करता था, लेकिन जब मेरा तबादला दिल्ली से गुवाहाटी कर दिया गया तो मैं वहां नही जा पाया। उन दिनों बेटे का पैर ख़राब था, जिसका इलाज दिल्ली में चल रहा था। आखिरकार अपने बेटे और परिवार के खातिर मैंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। तब मेरे पास पूंजी का अभाव था। जम्मू-कश्मीर के उधमपुर जिले के एक गाँव में मेरा घर था, इसलिए वहां लौट नहीं सकता था। बस... मजबूरियां थी इसलिए यह दुकान शुरू की।
अपने यहाँ की मशहूर चटनी का राज खोलते हुए वह कहती हैं, 'हरी चटनी बनाना मैं बचपन से जानता था। फ़िर भी, हमेशा कुछ न कुछ नया करने की कोशिश करता रहता था। वह आज भी नही भूले वह दिन, जब यह दुकान खोली थी तब यहाँ नास्ते की एक भी दुकान नहीं आज दर्जनों ढाबे यहाँ खुल चुके हैं. फिर भी इनके हाथो से बनी स्वादिष्ट हरी चटनी के साथ ब्रेड-पकौडों स्वाद चखने का मौका कोई भी मिस नही करना चाहता।
वर्ष २००५ में सिविल सेवा में तीसरे रैंक पर रहे रणधीर कुमार कहते है कि जो छात्र बेरसराय में रह चुके हों, वे शर्माजी की चाय और ब्रेड-पकौडों का स्वाद भला कैसे भूल सकता है। वहीँ, सीए फाइनल के छात्र राज के अनुसार साबूदाने से बने यहाँ के चटपटे नमकीन का स्वाद वह कभी नही भूल सकते। साबूदाने से बने इस चटपटे नमकीन 'मनोरंजन' को बच्चे भी कम पसंद नही करते। हालाँकि यहाँ के ब्रेड पकौडे तो सालों से सबकी पसंद है ही। 'लन्दन की मीडिया ने कई साल पहले यहाँ आकर मेरा साक्षात्कार लिया था', कहते हुए चमक उठती हैं शर्माजी की आँखें। वह खुश हैं की देश के सर्वष्ठ प्रतियोगिता की तयारी का रहे छात्रों के संपर्क में रहते हैं। उन्हें बहुत खुशी होती है जब कोई छात्र अपना मुकाम पा लेता है।
क्या कभी लौटकर वे आपके पास आते हैं ? पूछने पर शर्माजी कहते हैं, 'बिल्कुल।' मुझे यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है की ऐसे कितने ही लोग हैं, जो प्रतियोगिता परीक्षा पास करने के बाद या लंबे समय तक देश की सेवा में जुटे रहने के बाद भी इधर से गुजरते हुए हमारे पास आए हैं। अपनी खुशी का इजहार मैं शब्दों में नही कर सकता की इतने सालों बाद भी मेरे हाथों का स्वाद उन्हें मेरे पास खिंच लता है।' ऐसे किसी भी छात्र से बाद में आपको किसी भी तरह की मदद भी मिली? सवाल के जवाब में वह कहते हैं, 'मैंने आज तक किसी से कुछ भी नही माँगा।'
अपने हुनर पर शर्माजी को इतना यकीं है की वे अक्सर दुकान के लिए नई-नई चीजें बनने और प्रयोग करना बेहद अच्छा लगता है। मेरे यहाँ खाने की कितनी वेरायटी आपको मिल जायेगी। तो यदि आप भी जिन्दगी में कुछ कर दिखने के लिए बेरसराय में रहकर परीक्षा की तैयारी कर रहे हों तो हाथों से बने इन स्वादिस्ट व्यंजनों और चाय की चुस्की लेना न भूलें।
हाँ, एक जरूरी बात। मंदी का असर भले ही आपको चारों ओर नजर आ रहा हो, लेकिन शर्माजी को महंगाई की मर ने आज भी परेशान नही किया है। आज भी उनकी दुकान में ब्रेड-पकौडे, मालपुवे, मनोरंजन की कीमत मात्र पांच रूपये और समोसे और कचौडी की कीमत चार रूपये ही रखी गई है। इससे पहले की आप यहाँ पहुंचें, खड़े होकर खाना सीख लें, क्योंकि यहाँ बैठने के लिए कुर्सी नही मिलेगी। आपको खड़े होकर या फ़िर सीधी पर बैठकर ही पेट पूजा करनी होगी.
9/10/2009
9/09/2009
मुझे लड़नी है एक छोटीसी लड़ाई
लेकिन सुबह कि बात शाम में कोई याद रखता है तो दूसरा भूल जाता है। दूसरा याद रखता है तो पहला भूल जाता है। रात कि बात सुबह होते ही अँधेरे में विलीन हो जाता है और सूर्य की नई किरण के साथ फिर नई सुबह होती है दोस्ती की। फिर इंतजार होता है फोन आने का, आग आख़िर दोनों तरफ लगी है। तभी तो पिछले छह माह से यह क्रम चलने के बाद भी अक्सर बातें होती हैं दोनों के बीच। हालचाल पूछते हैं दोनों। दोनों की रातें एक जैसी ही कटती हैं, करवट बदलते-बदलते हुए। दिन होते ही दोनों लग जाते हैं अपने-अपने कामों में। दोनों कामों में ऐसे खो जाते हैं की दुनियादारी का ख्याल ही नहीं रहता। काम के वक्त दोनों रहते मस्त लेकिन अकेले होते ही याद आती है एक-दूसरे की।
'कैसे मंजर सामने आने लगे हैं, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'
एक बोलता है सच्ची बात कि उसके लिए उसका प्रोफेशन ही सब-कुछ है लेकिन वह होता है पक्के तौर से झूठ। क्योंकि यदि ऐसा होता तो फिर दुनिया की बातें उसे याद कहाँ रहती। अपने दोस्त की हर बात क्यों याद रहती। पूरे दो साल के दौरान अपने दोस्त के साथ रहे हर पल कैसे याद रहते। हर प्यार और झगडे के रवानगी कैसे याद रहती। दूसरा कहता मैं तो पिछले दो साल से सिर्फ तुम्हें जानता हूँ।
कब तक चलेगा यह दोस्ती और झगडे का मामला। दोनों एक दूसरे पर जमकर दोषारोपण करते हैं। यहाँ तक की गालियाँ भी अनचाहे मुंह से निकल जाती है। फिर भी एक दूसरे के बिना दोनों को मन नहीं लगता। आखिर कब तक चलेगा यह। आखिर कब आएगा जब दोनों सारी गलतफमियों, शिकायतों को किसी आग में जलाकर एक हो दुनिया के सामने होंगे। क्योंकि मन में एक प्यार तो है ही भले ही कितना किसी पर दोषारोपण करें, झगडा करें, गुस्सा करें।
मुझे लड़नी है एक छोटी—सी लड़ाई
एक झूठी लड़ाई में मैं इतना थक गया हूँ
कि किसी बड़ी लड़ाई के क़ाबिल नहीं रहा.
मुझे लड़ना नहीं अब...
9/06/2009
मिट्टी से निर्मित कुएं मिले
दरअसल गत वर्ष आई प्रलयकारी बाढ़ के वक्त आनंदपुरा-नेमुआ गांव के बीच पानी के बढ़ते दबाव के कारण सड़क टूट गयी जिसके कारण उस स्थल पर काफी गढ्डा हो गया। परंतु जलस्तर में फिलहाल काफी कमी आने के कारण कच्चे मिट्टी का छह कुआं को लोगों ने देखा तत्पश्चात इस संवाददाता ने स्थल निरीक्षण किया। निरीक्षण में देखा कि सही मायने में छह मिट्टी का कुआं वर्तमान में है ही। जिस कुएं का मिट्टी काफी कठोर है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि कुआं कब का है। चूंकि मिट्टी के बने होने के कारण उस पर कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। इस संबंध में ग्रामीण छत्री यादव एवं अन्य लोगों का कहना है कि अंग्रेज के जमाने में इस जगह नील की खेती बड़े पैमाने पर की जाती थी। हो सकता है कि मजदूरों को पीने के लिए पानी उपलब्ध कराए जाने के लिए इस कुआं का निर्माण कराया गया होगा। लेकिन जिस कठोर मिट्टी का कुआं मिट्टी के नीचे देखने को मिल रहा है उस तरह की मिट्टी इस इलाके में उपलब्ध नहीं है। लेकिन इस तर्क से खुलासा इसलिए नहीं हो रहा है कि एक ही जगह छह कुओं का मिलना विश्वास नहीं जता पा रहा है।
अगर प्रशासन और शासन इसकी जांच पुरातत्व विभाग से कराए तब ही पता चल सकता है कि उक्त कुआं कब का है और क्या इसी जगह था या नहीं? खुदाई से यह भी स्पष्ट हो सकेगा कि कुआं के अंदर और कुछ भी है। अगर कुआं से कुछ प्राप्त होता है तो निश्चित रूप से उसे साक्ष्य के रूप में देखा और परखा जा सकता है।
इस संबंध में अनुमंडलाधिकारी दयानिधान पांडेय ने बताया कि इसकी सूचना सरकार को दी जाएगी और पुरातत्व विभाग से जांच कराने का आग्रह किया जाएगा। चूंकि गांव के वयोवृद्ध भी इस संदर्भ में कुछ भी बताने से इंकार कर रहे हैं। दरअसल मिट्टी से निर्मित कुओं का प्रचलन कब ओर किस परिस्थिति में हुआ था इसकी भी जानकारी किसी को नहीं है। वैसे लोगों ने यह भी माना है कि पूर्व काल में राजा-महाराजा इस प्रकार की कुएं का निर्माण कराया करते थे।
ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि हो सकता है ऐसे कुएं का निर्माण राजा के द्वारा किया गया हो और उसमें कुछ अद्भुत चीजें भी मिल सकती है। बहरहाल कुएं की चर्चा गांव-गांव में हो रही है लेकिन वास्तविकता से परे। इसकी जांच के बाद ही सही पता चल पाएगा।
साभार : दैनिक जागरण
9/05/2009
पेड़ वाली बाई ; सुनीति
ऐसे दौर में जहां सगे भी जन्म से लेकर मृत्यु तक साथ नहीं देते हैं, वहीं ये मूक वृक्ष जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी रूप में हमेशा साथ देते हैं और बदले में कुछ नहीं मांगते। ऐसे में उनकी क्यों न रक्षा की जाए।
औघोगिकरण के लिए जिस तरह बहुमूल्य व विशष्टि पेड़ काटे जा रहे हैं, उनको हर हाल में रोकना होगा। जिस अनुपात में वृक्ष कट रहे हैं, उसी अनुपात में उन्हें लगाकर संरक्षित और सुरक्षित किया जाना चाहिए। यही वजह है कि उन्होंने पेड़ों को धर्म से जोड़ दिया। रक्षाबंधन आने पर सुनीति ने कई महिलाओं को इकट्ठा कर पेड़ों को राखी बांधकर उनकी रक्षा करने का संकल्प लिया।
सुनीति बताती हैं, ‘जशपुर की पनचक्की नर्सरी में लगी प्राइवेट जमीन पर पांच विशष्टि वृक्ष लगे थे। जमीन का मालिक उन्हें काटकर वहां दुकान बनाना चाहता था। उसने इसे काटने का आवेदन डीएम के पास दे रखा था। जब मुझे यह बात मालूम हुई तो मैंने निश्चय किया कि इन्हें हर हालत में बचाना है। रक्षाबंधन के मौके पर आसपास की महिलाओं को साथ ले विधिवत पूजा कर उनमें राखी बांधी दी। शाम तक देखा-देखी में आसपास की कई महिलाओं ने भी उन वृक्षों पर ढेर सारी राखियां बांध दीं। इसके बाद भूस्वामी ने उन पेड़ों को काटने का विचार छोड़ दिया। इस तरह वृक्षों को बचाने के लिए रक्षासूत्र बांधने के आंदोलन की शुरूआत हुई।’
इस सफलता से प्रभावित होकर सुनीति ने जशपुर वनमंडल की सहायता से प्रत्येक गांव में एक या दो वरिष्ठ वृक्षों का चयन किया। साथ ही राज्य में गठित ईको क्लब, वन सुरक्षा समितियों, महिला समूहों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने आंदोलन में शामिल होने का आग्रह किया। इनके सहयोग से अप्रत्याशित परिणाम सामने आए। भिलाई शहर व आसपास के इलाकों के लोग नीम के पेड़ की डालियां तोड़कर ले जाते थे जिससे इनमें बढ़त नहीं हो पाती थी। इन पेड़ों को राखियां बांधने के बाद लोगों ने उसके पत्ते तोड़ने बंद कर दिए।
शुरूआती दौर में पेड़ों को भाई मानने की बात को लेकर लोगों के मजाक का पात्र बनने वाली सुनीति के लगन व अथक प्रयास का ही परिणाम था कि केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने सभी राज्यों को वृक्ष रक्षा सूत्र कार्यक्रम चलाने का निर्देश दिया। उनकी अगुवाई में शुरू हुआ यह आंदोलन छत्तीसगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, झारखंड, उत्तरांचल, राजस्थान, बिहार और उड़ीसा में फैल चुका है। उनके आंदोलन से प्रभावित होकर छत्तीसगढ़ राज्य वन विभाग राज्य में बम्लेश्वरी देवी मंदिर, डोंगरगढ़, महामाया मंदिर, अंबिकापुर सहित अन्य धार्मिक स्थलों पर पौध प्रसाद की परंपरा की शुरूआत की है। इसके तहत मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में पौधे दिए जाते हैं।
सुनीति यादव का कहना है कि ऐसे दौर में जहां सगे भी जन्म से लेकर मृत्यु तक साथ नहीं देते हैं, वहीं ये मूक वृक्ष जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी रूप में हमेशा साथ देते हैं और बदले में कुछ नहीं मांगते। ऐसे में उनकी क्यों न रक्षा की जाए। ऐसी ही सोच उनके आंदोलन से जुड़ी हर महिलाओं की है, तभी तो इस आंदोलन को छत्तीसगढ़ के लोग ‘चिपको आंदोलन’ का दूसरा रूप मानते हैं।
9/03/2009
कई प्रतिभाशाली नेताओं पारी का असमय अंत
दुर्घटना का शिकार होने वाले नेताओं में महत्वपूर्ण नाम पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पुत्र एवं कांग्रेस नेता संजय गांधी का है जिनकी 29 वर्ष पहले दिल्ली के सफदरजंग हवाई अड्डे पर ग्लाइडर दुर्घटना में मौत हो गई थी। इसी कड़ी में कांग्रेस के प्रतिभाशाली नेता राजेश पायलट आते है जिनकी 11 जून 2000 को जयपुर के पास सड़क हादसे में मौत हो गई थी। पेशे से पायलट राजेश ने अपने मित्र राजीव गांधी की प्रेरणा से राजनीति में कदम रखा और राजस्थान के दौसा लोकसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए। पालयट एक महत्वपूर्ण गुर्जर नेता के रूप में उभर कर सामने आए थे। उनके नरसिंह राव सरकार में गृह राज्य मंत्री रहते हुए तांत्रिक चंद्रास्वामी को जेल भेजा गया था।
माधव राव सिंधिया एक और महत्वपूर्ण नाम है जो असमय दुर्घटना का शिकार हुए। सिंधिया ने अपने राजनैतिक कैरियर की शुरूआत 1971 में की थी जब उन्होंने जनसंघ के सहयोग से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में गुना लोकसभा क्षेत्र से चुनाव मेें जीत दर्ज की थी। बहरहाल, 1997 में वह कांग्रेस में शामिल हो गए और 1984 में उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी को ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र से पराजित किया। सिंधिया ने विभिन्न सरकारों में रेल मंत्री, नागर विमानन मंत्री और मानव संसाधन विकास मंत्री का दायित्व संभाला। लेकिन 30 सितंबर 2001 को विमान दुर्घटना में उनकी असमय मौत हो गई।
तेदेपा नेता जी एम सी बालयोगी भी असमय दुर्घटना का शिकार हुए जब तीन मार्च 2002 को आंध/ प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के कैकालूर इलाके में उनका हेलीकाप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। बालयोगी सबसे पहले 10वीं लोकसभा में तेदेपा के टिकट पर चुन कर आए। उन्हें 12वीं और 13वीं लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया।
उघोगपति तथा राजनेता आ॓ पी जिंदल भी दुर्घटना का शिकार होने से असमय भारतीय राजनीति के पटल से आ॓²ाल हो गए। जिंदल आर्गेनाइजेशन को उघोग जगत की बुलंदियों पर पहुंचाने वाले आ॓ पी जिंदल हरियाणा के हिसार क्षेत्र से तीन बार विधानसभा के लिए चुने गए और उन्होंने प्रदेश के उुर्जा मंत्री का दायित्व भी संभाला। 31 मार्च 2005 को हेलीकाप्टर दुर्घटना में उनकी असमय मौत हो गई।
भाजपा के प्रतिभावान नेता साहिब सिंह वर्मा का नाम भी इसी कड़ी में आता है। वर्ष 1996 से 1998 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री का पद संभालने वाले वर्मा 1999 से 2004 तक लोकसभा के सदस्य और केन्द्रीय मंत्री भी रहे। भाजपा के उपाध्यक्ष पद का दायित्व संभालने वाले साहिब सिंह वर्मा की 30 जून 2007 को अलवर॥दिल्ली राजमार्ग पर सड़क दुर्घटना में मौत हो गई।
इसी कड़ी में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, ललित नारायण मिश्रा, दीन दयाल उपाध्याय का नाम भी आता है जिनकी आतंकवादी हिंसा या रहस्यमय परिस्थिति में मौत हुई। 31 अक्तूबर 1984 को इंदिरा गांधी की अपने ही सुरक्षाकर्मियों ने हत्या कर दी थी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी आतंकवादी हमले के शिकार हुए जब श्रीपेरम्बदूर में चुनावी सभा के दौरान लिट्टे आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी।
हालांकि उधर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल, केंद्रीय मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण और शैलजा उस समय बाल॥बाल बच गए थे जब 2004 में गुजरात में खाणवेल के पास उन्हें ले जा रहे हेलीकाप्टर का पिछला हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था।
साभार : राष्ट्रीय सहारा
9/01/2009
मेरी तो सहानुभूति है भाजपा के साथ: के.एन.गोविन्दाचार्य
मेरी तो सहानुभूति है भाजपा के साथ : के.एन.गोविन्दाचार्य
भाजपा की स्थिति वास्तव में चिंतनीय है। पुराने संबंधों के कारण मेरी सहानुभूति भी है। देश में विपक्ष इतना कमजोर और असंगठित होगा, यह शायद ही किसी ने कभी सोचा होगा। यह लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी समस्या है और सार्थक लोकतंत्र के विकल्प के अभाव में देश अराजकता की लपटों में झुलसेगा। सभी सोचने-समझने वालों के लिए यह चुनौती भी है। मैं यह मानता हूं कि भाजपा में बहुत वर्षों से संगठनात्मक समस्याओं का इलाज नहीं हुआ। वैचारिक मुद्दों की सफाई की कोशिश नहीं हुई है। वैज्ञानिक कार्य-शैली विकसित नहीं की जा सकी है। उसका परिणाम अब सामने आ रहे हैं जो बदहवासी और हड़बड़ी के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।
भाजपा में बहुत वर्षों से संगठनात्मक समस्याओं का इलाज नहीं हुआ। वैचारिक मुद्दों की सफाई की कोशिश नहीं हुई है। वैज्ञानिक कार्य-शैली विकसित नहीं की जा सकी है। उसका परिणाम अब सामने आ रहे हैं जो बदहवासी और हड़बड़ी के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है.
आडवाणी का पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जाना और अधकचरी जानकारियों के आधार पर जिन्ना जैसे संवेदनशील मुद्दे पर जसवंत सिंह का किताब लिखना, दोनों ही वैचारिक असंवेदनशीलता के उदाहरण हैं। यदि आडवाणी में वैचारिक स्पष्टता होती, तो वे जिन्ना की मजार पर जाने के बजाय रणजीत सिंह की समाधि पर माथा टेकने गए होते। कंधार कांड के समय करीब डेढ़ सौ अपहृत लोगों की प्राण रक्षा की बजाय पिछले साठ बरसों में हताहत हुए हजारों जांबाज सिपाहियों के बलिदान से वे प्रेरणा लेते। आतंकवादियों को खत्म किए होते, न कि विभिन्न जेलों में बंद आतंकवादियों की रिहाई की बात करते।
मेरा मानना है कि दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद से दूर भाजपा नेतृत्व जा रहा है और इसके लिए नए पैंतरे या शब्दों के प्रयोग किये जा रहे हैं। भाजपा की नीतियां सरकार की प्रति-नीतियों में तब्दील हो गई हैं। दिशा-दर्शक तत्व के नाते मैं यह कह सकता हूं कि भाजपा नेतृत्व ने इसको अंगीकार नहीं किया। मसलन, एक तरफ अखिल भारतीय अध्यक्ष कहते हैं कि विचारधारा से कोई समझौता नहीं होगा, ऐसे में उन्हें इस बात का उत्तर देना होगा कि सत्ताधारी राज्यों में बेतहाशा बढ़ाए गए शराब के ठेके के मामले में हिन्दुत्व विचारधारा कहां गई? उसी प्रकार उत्तराखंड में गंगा के साथ जो छेड़छाड़ की गई, उसमें भारत की स्मिता कहां गई? मध्य प्रदेश या राजस्थान में जितने भ्रष्टाचार के मामले सामने आए या पनपे, उस वक्त विचारधारा कहां चली गई? ऐसे सवाल चाहे मूल आधारित हों या प्रतीकों में उस वक्त खड़े हुए हैं, जब विचारधारा पर कायम रहने की बात कही जाती रही है।
मुख्तार अब्बास नकवी से लेकर वरूण गांधी के जो बयान आए, वे किस विचारधारा से प्रेरित थे? गुजरात में ‘सेज’ को रामबाण कहा गया। इसे एक ऐसी लग्जरी बस के तौर पर सामने लाया गया कि यदि अभी इस बस पर नहीं चढे़, तो आप पीछे छूट जाआ॓गे। ऐसे में एकात्म मानवतावाद जो स्वदेशीकरण पर आधारित था, उसका क्या हुआ? जिस तरह विनिवेश हो रहा है, उस पर पार्टी की विचारधारा क्या है? इन तमाम मुद्दों पर पार्टी में कभी बातचीत नहीं हुई। पार्टी को जब जो लगा कि सत्ता में आने के लिए यही ठीक है, वैसा ही मान लिया गया।
वर्तमान में, भाजपा की स्थिति ऐसी सेना की है, जिसके सिपाही लड़ने के लिए रणक्षेत्र में तैयार हैं लेकिन सेनापति और वरिष्ठ नायक दुश्मन को छोड़ आपस में ही लड़ रहे हैं। भाजपा के कार्यकर्ताओं की मन:स्थिति फिलहाल ऐसी ही है। और इसके लिए सत्ता का सुविधाभोगी और सत्ताधारी नेता काम नहीं आएंगे। उन्हें आगे क्या करना है, वे भाजपा के लोग ही सोचें।
जहां तक संघ की बात है, उसकी भूमिका हमेशा सलाहकार की रही है। संगठनात्मक भूमिका रही है। यह अलग बात है कि इस बार भाजपा की चिंतन बैठक से दो दिन पहले मोहन भागवत का साक्षात्कार छपा। संघ हमेशा संगठनात्मक धर्म निभाता रहा है और राजनीति से उसका कोई लेना-देना नहीं है। चूंकि भारत के सभी प्रमुख राजनीतिक दल अमीरपरस्त हो गए हैं, अल्पसंख्यकपरस्त हो गए हैं, तो भारत में भारतपरस्त और गरीबपरस्त का उभार होना जरूरी है। जब भारतीय जनता के पास तिरंगा कांग्रेस, भगवा कांग्रेस और लाल कांग्रेस के बीच किसी को चुनना हो, तो लाचारीवश उन्हें लगा कि लाल या भगवा कांग्रेस की तुलना में तिरंगा कांग्रेस क्या बुरा है? इन कांग्रेसों का सत्ता में आना वक्त का तकाजा है और ऐसे में लोकतंत्र खतरे में पहुंचेगा। गरीबों की आवाज संसद के बदले सड़कों पर गूंजेगी। देश अराजकता की लपटों में झुलसेगा। आगे की राजनीति और रणनीति भाजपा में सोची ही नहीं जा रही है।
शिमला में आयोजित ‘चिंतन बैठक’ चिंता बैठक के रूप में समाप्त हो गई। यह ऐसी स्थिति है कि ‘पढ़ने गए नमाज, गले पड़ा रोजा’। चिंतन करने गए थे, पार्टी के बारे में और निष्कासन की बात होने लगी। होशोहवास के साथ कोई भी निर्णय नहीं लिया जा रहा है। सब काम हड़बड़ में हो रहा है जो अधकचरे निर्णय के रूप में सामने आ रहा है। जब वसुंधरा से त्यागपत्र लेना ही था, तो उन्हें विधायक दल का नेता ही क्यों बनाया गया? बुनने-उधेड़ने की प्रक्रिया से पार्टी बच सकती थी। इस तरह दिशा और नियमों की समझ मनमर्जी और तात्कालिकता की शिकार हो गई।
: विनीत उत्पल
(यह आलेख राष्ट्रीय सहारा में छपा है )
8/29/2009
सामाजिक कार्यों में रूचि : राजश्री बिड़ला
यदि तुम किसी भूखे आदमी को एक दिन खाने के लिए मछली दोगे तो वह खा लेगा और दूसरे दिन फिर भूखा रहेगा और यदि उसके बदले तुमने उसे मछली पलने के लिए सिखा दिया तो वह जिन्दगी भर कभी भूखा नहीं रहेगा।
8/28/2009
चीनी नीयत संदिग्ध
सुजीत दत्ता
सेंटर फॉर पीस एंड कांफ्लिक्ट रिजोल्यूशन
जामिया मिल्लिया
इस्लामिया, नई दिल्ली
पिछले दिनों इंटरनेट के जरिए चीन के थिंक टैंक ने भारत को तोड़कर छोटे-छोटे टुकड़ों को बांटने की बात कही, वह काफी खतरनाक है। चीनी की सरकारी मीडिया लगातार भारत विरोधी अभियान में शामिल रहा है और अब इस मामले में वहां के थिंक टैंक को भी शामिल किया जा रहा है। इसमे पीछे चीन का उद्देश्य भारत, चीन सहित दुनिया के तमाम देशों की सोच को बरगलाना है जिससे चीन के पक्ष में हवा का रूख किया जा सके। यह बात गौरतलब है कि इस तरह के मामले सामने आने के बाद चीन लगातार मामले का खंडन करता है लेकिन उस पर रोक लगाने को लेकर कोई कदम नहीं उठाता है। स्वतंत्रता से लेकर आज तक के इतिहास को पलटें तो चीन लगातार भारत के विरोध में बयान देता रहा है। विश्व के वर्तमान हालत ऐसे हैं और 1962 की लड़ाई के बाद फिलहाल चीन भारत के साथ युद्ध करने की स्थिति में नहीं है। लेकिन कूटनीतिक चाल चलने से उसे कौन रोकेगा?
1993 में चीनी राष्ट्रपति ज्योंग जेनिन के भारत आने पर आपसी विश्वास बढ़ाने के
साथ-साथ एक दूसरे के खिलाफ सैनिक कार्रवाई न करने को लेकर समझौता हुआ था। लेकिन इसके बाद से चीन लगातार सेना का दवाब भारत पर बनाए हुए है।
2003 में जब भारतीय प्रधानमंत्री चीन अटल बिहारी वाजपेयी चीन गए थे तो उस वक्त साझा समझौते पर दस्तखत किया गया था। इसके बाद से दोनों देशों के बीच व्यापार में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। यही वह वक्त था जब नाथुला दर्रा को खोला गया था और अरबों का व्यापार दोनों देशों के बीच हुआ था। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस व्यापार में भारत के मुकाबले चीन को काफी फायदा हो रहा है। भारत में चीन में निर्मित विभिन्न सामानों की बिक्री जबर्दस्त है। चीनी कंपनियों का कारोबार हजारों करोड़ों का है। भारत के बाजारों में चीनी उत्पादों के सस्ते होने के कारण जबर्दस्त मांग है जबकि भारत किसी भी हद तक उससे प्रतिस्पर्धा करने में नाकाम साबित हो रहा है। दोनों देशों के बीच व्यापार के मामले में सबसे खास बात यह है कि भारत ने कुल 17 विभिन्न प्रोडक्टों को चीन में बेचने की बात थी लेकिन चीन ने सिर्फ तीन में हामी भरी है।
1993 में चीनी राष्ट्रपति ज्योंग जेनिन के भारत आने पर आपसी विश्वास बढ़ाने के साथ-साथ एक दूसरे के खिलाफ सैनिक कार्रवाई न करने को लेकर समझौता हुआ था। लेकिन इसके बाद से चीन लगातार सेना का दवाब भारत पर बनाए हुए है। तिब्बत में भी लगातार दबाव बनाए हुए है। भारत-चीन संबंधों को लेकर एक बात और गौर करने की है कि जबसे भारत अमेरिका के नजदीक आया है, वह चीन की आंखों की किरकिरी बना हुआ है। खास कर न्यूक्लियर डील के बाद उसने काफी कड़ा रूख अपनाया है और वह लगातार आर्थिक मोर्चे के साथ-साथ सामरिक मोर्चे पर भारत को चुनौती देता आ रहा है। कभी तिब्बत को लेकर तो कभी अरुणाचल प्रदेश से लगने वाली सीमा को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी उछालता रहा है।
हालांकि 2008 में भारतीय प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह की चीन यात्रा के दौरान वाणिज्य, व्यापार सहित तमाम मामलों पर दोनों देशों के बीच समझौते हुए। इससे अंदाजा लगाया जा रहा था कि दोनों देशों के बीच संबंध मधुर होंगे लेकिन इस बीच इंटरनेट पर भारत के टुकड़े-टुकड़े करने वाले लेख से चीन की भूमिका संदिग्ध लग रही है। ऐसे में भारत को चाहिए कि वह भी हर मोर्चे पर कड़ा रूख अपनाए। शांति को लेकर चीन का उतना ही दायित्व है जितना भारत का। पिछले चार-पांच सालों से मीडिया के साथ-साथ वहां की सरकार की जो भागीदारी रही है, इस मामले में भारत को अवश्य विचार करना चाहिए। इसके लिए चीन के साथ लगातार बातचीत जारी रखनी होगी। साथी ही भारत को दीर्घयामी योजना पर अमल करने की जरूरत है जिससे भविष्य में किसी भी तरह के संकट का सामना न करना पड़े।
प्रस्तुति : विनीत उत्पल
(राष्ट्रीय सहारा से साभार)
8/20/2009
औरों जैसी ही है शिखा शर्मा
अधिक व्यस्त रहने के बावजूद उसे शायद ही लोगों ने कभी दवाब में देखा है। वह कूटनीतिक तौर से विचार करती है और उस पर अमल भी करती है जो नेतृत्व करने वाले लोगों में काफी कम देखने को मिलती है।
खूबसूरत साड़ियों की मालकिन शिखा रोमांटिक उपन्यास पढ़ना पसंद करती हैं और शास्त्रीय गायिका भी हैं। उनके साथ काम करने वाले लोगों का मानना है कि इतने अधिक व्यस्त रहने के बावजूद उसे शायद ही लोगों ने कभी दवाब में देखा है। वह कूटनीतिक तौर से विचार करती है और उस पर अमल भी करती है जो नेतृत्व करने वाले लोगों में काफी कम देखने को मिलती है। उसके साथ काम करने वाले मानते हैं कि वह बड़ी टीम को नेतृत्व देने में के साथ-साथ लोगों को मोटिवेट करने के सक्षम है। अपनी भारी व्यस्तताओं के कारण अपने मनपसंद उपन्यास पढ़ने में काफी कम समय दे पाती है क्योंकि वह अपने परिवार के साथ फिल्में देखना नहीं भूलतीं।
एक्सिस बैंक में उसकी नई भूमिका के कारण माना जा रहा है कि खाली समय मिलने पर वह जहां भारतीय शास्त्रीय संगीत की ओर लौटेगी, वहीं अपने एकमात्र बेटे-बेटी को गायन की शिक्षा भी देगी। शिखा कहती हैं, "मैं खुद पर विश्वास करती हूं। अनिवार्य तौर से खुद के लिए एक विजन होना चाहिए जो संस्थान के भी पार हो। मेरा हर कदम नई समझ के लिए खुला है जो पूरी तरह पारदर्शी है। हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहां लगातार बदलाव हो रहा है। मैं सोचती हूं कि ऐसे में सीखने का शौक, प्रयोग और रिस्क लेने की क्षमता ही सफलता दिला सकती है।' किसी भी कंपनी में इस ओहदे तक पहुंचने और बरकरार रखने के साथ काम के दवाब को लेकर कहती हैं कि अपने काम को प्राथमिकता देने के बावजूद अपने काम और परिवार के बीच सामंजस्य बनाए रखती है। यही कारण है कि छुट्टियां में जहां अपने परिवार के साथ पर्याप्त समय देती है जिससे वह खुद को रीचार्च करती है।
शिखा ऐसे परिवार से ताल्लुक रखती है जहां सभी एक छत के नीचे प्यार और खुशी से रहते हैं। वह कहती हैं कि उसके पति भी सीईओ हैं लेकिन दोनों के इतने व्यस्त रहने के बावजूद हमलोग समय मिलने पर एक परिवार की तरह एक साथ समय बिताते हैं। उनका रवैया मेरे करियर को लेकर हमेशा सहयोगात्मक रहा है और वह हमेशा ही मेरे ताकत रहे हैं। शिखा के दिन की शुरुआत भी और महिलाओं की तरह होती है और वह सुबह का समय अपने परिवार के साथ बिताने में काफी सकून महसूस करती हैं। लेकिन आफिस आने से लेकर देर शाम घर पहुंचने तक कामों के बीच ही घिरी रहती है। वह बताती है कि घर के काम को लेकर भी जिम्मेदारी बंटी हुई है। यही कारण है कि अपने परिवार के साथ पर्याप्त समय गुजार पाने में सक्षम होती हैं।
8/18/2009
शब्दचित्रों में सदियों का स्त्री-दर्द
वर्तमान सामाजिक परिवेश में एक स्त्री की मजबूरी, छटपटाहट, अंतर्द्वंद के साथ जीने और विपरीत परिस्थितियों को सहने के बावजूद इसकी आहट किसी को न लगने देना ही क्षमा शर्मा की कहानी का यथार्थ है। यह एहसास बिना किसी हो-हल्ला के एक स्त्री के अन्दर उठ रहे बवंडर के बारीक़ शब्दचित्रों से रूबरू उनकी कहानियों को पढने के दौरान होता है। क्षमा शर्मा का कहानी संग्रह 'रास्ता छोड़ो डार्लिंग' में संकलित कहानियाँ सामाजिक ताने-बाने में आम आदमी के रोजमर्रा के जीवन में घटने वाली घटनाओं का दस्तावेज है। ये कहानियाँ सदी के एक चौथाई समय की कहानियाँ हैं, जिसमें १९८४ में लिखी गई कहानी 'कस्बे की लड़की ' से लेकर २००६ में लिखी गई कहानी 'रसोई घर' तक शामिल है।
इतने सालों में गाँव छोटे शहरों में, छोटे शहर नगरों में, नगर महानगरों में और
महानगर मेट्रो में तब्दील हो गए लेकिन नही बदला तो एक स्त्री का दर्द, जो सदियों से
वे चुपचाप सहती जा रही हैं।
कहानी संग्रह की हरेक कहानी गांवों,कस्बों और छोटे शहरों से निकलकर मेट्रो सिटी में रोजमर्रा घटने वाली घटनाओं के साथ आम व्यक्ति या स्त्री की उलझनें, समस्याएँ, आकाँक्षाओं, उधेड़बुन के साथ-साथ उनके सपनों को बयान करती है। अधिकतर कहानियों में एक औरत की जिन्दगी के खालीपन और मन में उतरने वाली तरंगों की छाप साफ-साफ दिकती है। वक्त जिन्दगी की परतों को इतनी निर्ममता से उधेड़ता है कि सिवाय छटपटाने के कोई चारा नहीं बचता। संग्रह की कहानी 'बयां ' में शहर की जीवंतता चाहे गली-मोहल्ले की सड़क हो या सिनेमा हाल की या टिकट खिड़की की-सभी बातें उकेरी गई हैं। साथ ही, किस कदर एक युवती या स्त्री को जीवन की हर सीढ़ी पर सतर्क रहना पड़ता है और शहर छोड़ दूसरे शहर में बस जाने पर कैसे एक टीस-सी उठती है, इससे भी पाठक अवगत होता है।
'पिता' कहानी में एक लड़की के दिलोदिमाग में अपने पिता की कल्पना और भावुक मन के वेदना है, जिसमें अपने शहर की याद के साथ-साथ अपने घर की याद भी उसे आती है। औरतों को इस पुरूष प्रधान समाज में किस कदर सुनना और सहना पड़ता है और आख़िर पलायन ही एक मात्र विकल्प दीखता है, इससे जूझती पटकथा 'जिन्न' है। कहानी 'कौन है जो रोता है' में जहांआराऔर उनकी माँ के जरिये एक स्त्री की वेदना को बखूबी दर्शाया गया है। कहानी 'दादी माँ का बटुआ' भ्रूण हत्या और मादा भ्रूण हत्या करने वालों के चेहरे पर जोरदार थप्पड़ है। संग्रह की कहानियाँ 'कैसी हो सुष्मिता', 'घर-घर', 'बिंदास', 'एक शहर अजनबी', 'रास्ता छोड़ो डार्लिंग', 'कस्बे की लड़की', 'ढाई आखर', 'एक है सुमन', 'चार अक्षर', 'मंडी हॉउस' आदि भी रोचक हैं, जिसमें समाज का सच और स्त्री का दर्द है।
क्षमा की कहानियाँ एक चौथाई सदी के पटल पर लिखी गई है, जबकि इतने सालों में गाँव छोटे शहरों में, छोटे शहर नगरों में, नगर महानगरों में और महानगर मेट्रो में तब्दील हो गए लेकिन नही बदला तो एक स्त्री का दर्द, जो सदियों से वे चुपचाप सहती जा रही हैं। मजबूरी, बेबसी और छटपटाहट के घुलते-पनपते वाली इस स्त्री संसार को क्षमा बखूबी अपनी सवेदनशील आखों से पहचानती है। संग्रह की कहानियों को पढ़ते वक्त एक बात अवश्य दिमाग में कौंधती है कि क्षमा ताकत और पैसे पर टिके समाज की परतों को बड़ी हुनरमंदी के साथ उघाड़ती तो है और कई बार कहानी कुछ ऐसा मासूम-सा सवाल पेश कर ख़तम हो जाती है जिसका उत्तर मासूमियत से देना सम्भव नही होता, लेकिन उससे बाहर निकलने का उपाय क्या है। जबकि कहानी एक तब्दीली की मांग करती है और यह तब्दीली वास्तविक जगत में भी हो सकता है।
बर्तोल्ख ब्रेख्त कहते हैं कि वह देश अभागा है जिसे नायकों कि जरूरत होती है। शायद यही सोच क्षमा शर्मा की भी है क्योंकि इनकी अधिकतर कहानियों में पात्र तो हैं लेकिन नायक एक भी नही है। इसके उलट सामाजिक सरोकारों में शामिल घर, मकान, सड़क, गलियां सभी इनकी कहानियों के नायक हैं लेकिन नही है तो एक अदद पात्र। यही क्षमा की कहानियों कि विशेषता है और लेखन शैली की भी।
8/15/2009
जी, आज हम स्वतंत्र हैं
कुछ भी सोचने के लिए
कुछ भी मानने के लिए
कुछ भी करने के लिए
कुछ भी नहीं करने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है
जी, आज हम स्वतंत्र हैं
कभी भी जागने के लिए
कभी भी सोने के लिए
कभी भी खाने के लिए
कभी भी पीने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है
जी, आज हम स्वतंत्र हैं
किसी से प्यार का नाटक करने के लिए
किसी को झांसे में रख काम निकालने के लिए
किसी को दिन-दहाड़े धोखा देने के लिए
किसी के साथ फालतू का झगडा करने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है
जी, आज हम स्वतंत्र हैं
कभी भी झूठ बोलने के लिए
कभी भी किसी का टांग खींचने के लिए
कभी भी किसी को जलील करने के लिए
कभी भी किसी को जिन्दा मरते देखने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है
जी, आज हम स्वतंत्र हैं
किसी भी परम्पराओं को नहीं मानने के लिए
किसी भी रीति-रिवाजों को ढकोसला कहने कि लिए
किसी भी पुरुष का पुरुष से और स्त्री का स्त्री से सम्बन्ध बनाने के लिए
किसी भी संस्कार तो न मानने या न पालन न करने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है
जी, आज हम स्वतंत्र हैं
जितना बिगड़ सकते हैं बिगड़ने के लिए
जितना कमीना हो सकते हैं कमीना बनने के लिए
जितनी अश्लीलता हो सकती है उतना अश्लील होने के लिए
जितने के साथ हमबिस्तर हो सकते हैं उतने के साथ हमबिस्तर होने के लिए
आखिर देश स्वतंत्र हो चुका है
जी, हम स्वतंत्र हैं, देश स्वतंत्र है
क्योंकि यह स्वतंत्रता मिली है
जीवन-मूल्यों, आदर्शों, नैतिकताओं को बलि चढाने के लिए
न कि उसे और पुख्ता करने के लिए
जैसा हमारे समाज में हो रहा है
और इसका परिणाम देश भुगत रहा है.
8/12/2009
निरूपमा का जवाब नहीं
गाना गाने के साथ ही गिटार और पियानो बजाने वाली निरुपमा कविता और कहानी भी लिखती हैं,वे ज्वेलरी की शौकीन तो हैं ही उनका ड्रेसिंग सेंस भी गजब का है
अपने साथियों के बीच वह अच्छे ड्रेसिंग सेंस के लिए भी जानी जाती हैं। उनके पास ज्वेलरी का बेहतरीन कलेक्शन है। उनके पति सुधाकर राव कर्नाटक के मुख्य सचिव हैं, कहते हैं कि उनकी सबसे बड़ी विशेषता काम के प्रति समर्पण है। जब वह कुछ करने की ठान लेती हैं तो कोई उनका ध्यान भटका नहीं सकता। वह बताते हैं कि 2008 में मेरे मुख्य सचिव बनने के बाद हमारी मुलाकातें काफी काम हो रही हैं। उनके अक्टूबर 2006 में बीजिंग में पद संभालने से लेकर विदेश सचिव बनने तक सिर्फ एक बार मुलाकात हो सकी है। वह बताते हैं कि उसे या मुझे जब भी मौका मिलता है तो फोन पर बात जरूर होती है और वह बेटों को जरूर फोन करती है।
लोकसभा की पहली महिला अध्यक्ष मीरा कुमार और निरूपमा राव एक ही बैच में भारतीय विदेश सेवा के लिए चुनी गईं थीं, जिसमें निरूपमा राव ने टॉप किया था। दो बेटों की मां निरूपमा को 21 साल की उम्र में विदेश सेवा से जुड़ने वाली व विदेश मंत्रालय की पहली महिला होने का गौरव हासिल है। चीन में राजदूत बनने से पहले बतौर प्रवक्ता दुनिया को खरी-खरी सुनाने के लिए मशहूर रही हैं। वह श्रीलंका की उच्चायुक्त और पेरू में देश की राजदूत रह चुकी हैं। वह मास्को स्थित भारतीय मिशन में भी काम कर चुकी हैं। विदेश मंत्रालय में पूर्वी एशिया मामलों की संयुक्त सचिव भी रह चुकी हैं।
विवादों की हिंदी अकादमी : विनीत उत्पल
हिन्दी अकादमी के इतिहास में पहली बार किसी लोकप्रिय लेखक को उपाध्यक्ष के पद के लिए दिल्ली सरकार ने मनोनीत किया और इसके साथ ही लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य को लेकर विवाद खड़ा हो गया। यह लोकतंत्र की विडंबना ही है कि जो लेखन लोक से जितना दूर रहता है वह उतना ही गंभीर कहलाता है और हास्य-व्यंग्य से जुड़े साहित्यकारों को ‘विदूषक’ कहा जाता है। जैसा कि अशोक चक्रधर के मामले में हुआ।
शलाका सम्मान को लेकर भी अकादमी की कार्यकारिणी से लेकर संचालन समिति तक कई सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जिस कदर कृष्ण बलदेव वैघ को श्लाका सम्मान देने को लेकर डॉ. नित्यानंद तिवारी से लेकर डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी तक ने इस्तीफा दिया, वह अकादमी के भविष्य पर सवाल खड़ा करता है। ए क नेता के पत्र लिखने पर कि वैघ अश्लील लेखन करते हैं, वास्तव में साहित्यिक दिवालियापन ही माना जाए गा। क्योंकि इससे काफी हद तक साहित्य पर राजनीति के हावी होने की बू आती है।
अकादमी के 28 साल के इतिहास में यह पहली घटना है जब किसी सचिव के सामने इतनी विकट परिस्थिति आ गई कि उन्होंने अपने कार्यकाल से पहले ही इस्तीफा देना उचित समझा। पुरस्कार या सम्मान मिलना ए क अलग मसला है और रचनात्मक क्षमता के साथ भविष्वदृष्टा होना अलग मसला। गलती कहीं भी किसी से भी हुई हो गलती स्वीकार कर क्षमा मांगने से किसी का कद छोटा नहीं हो जाता। निर्णय पर पुनर्विचार करने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है।
‘नृप होई कोऊ हमें का हानी’ वाली बात साहित्य को याद रखने की जरूरत है। हिन्दी साहित्य का दायरा काफी व्यापक है। इस पर लगातार तकनीक और सूचना का दबाव है। साथ ही राजनीति की रोटी भी इसके सहारे जमकर सेंकी जाती रही है और जाती है। लेकिन साहित्यकार चाहे वह किसी भी सोच व समझ के हों, उन्हें बौद्धिक लड़ाई के लिए तैयार होना होगा। हिटलरशाही की जगह लोकतंत्र में विश्वास करना होगा और एक मंच पर बैठकर अपनी बातों को रखने का साहस भी जुटाना होगा। इस्तीफे देना या लेना, पुरस्कार या सम्मान देना या न देना, पद मिलना या न मिलना इतनी तुच्छ बातें हैं जिसका तत्कालीन संदर्भ में मायने तो होता है लेकिन कालजयी तो रचना और रचना प्रक्रिया से आए तत्व ही होते हैं।
आलोचना ही नहीं आत्मलोचना भी हो : अशोक चक्रधर
हित स्वार्थगत, परमार्थिक, अथवा परम आर्थिक कारणों से जब भी कोई विवाद जन्म लेता है तो किसी निरीह अथवा समर्थ की बलि लेना चाहता है। मुझे लगता है कि अंतरंग कारण कुछ और हैं, निशाना मुझे बना दिया गया। निजी तौर पर मेरा भारी अहित हुआ है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद मानद है, आर्थिक लाभ का नहीं। इसके लिए कोई वेतन नहीं होता। क्रियान्वयन की जिम्मेदारी का पद सचिव का है। उपाध्यक्ष का काम होता है दिशा-निर्देश और परामर्श देना। पुरस्कारों को लेकर जो विवाद हैं वे मेरे आने से पहले के हैं। इन दिनों आगामी कार्यक्रमों की रूपरेखा बन रही है। अभी तो मैं चीजों को समझने की प्रक्रिया में हूं। मेरी कार्यशैली पर अनावश्यक कयास लगाए जा रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक हिन्दी-प्रेमी समाज और मेरे देशवासी विभिन्न संचार माध्यमों के कारण, अनगिन छात्र विभिन्न विश्वविघालयों में मेरी अध्यापकीय सक्रियता के कारण, हिन्दी के भविष्य की चिंता रखने वाले मेरे कम्प्यूटर-कर्म के कारण, कुछ दर्शक मेरी अभिनय-प्रस्तुति और फिल्म-लेखन-निर्देशन-कार्यों के कारण, दशकों से मुझे प्यार करते हैं। यह प्रेम मेरी पूंजी है। लेकिन कुछ हैं जो केवल ‘हास्य कवि’ कहकर ए कांगी छवि बनाना चाहते हैं। ‘हास्य-कवि’ कहते हुए उनके मन में कोई सम्मान नहीं होता। वे हास्य और व्यंग्य को दोयम दर्जे का मानते है। लोकप्रियता क्योंकि उनके हिस्से में नहीं आ सकी, इसलिए उससे नफरत करते हैं।
जनतंत्र सभी को बोलने का अधिकार देता है, साथ ही कर्तव्यों का बोध भी कराता है। मैं मानता हूं कि विवादों को विमर्श की दिशा में मुड़ना चाहिए । करिए , विमर्श करिए कि साहित्य क्या है? कविता क्या है? उसकी कितनी धाराए ं हैं? हर धारा में गंभीर और अगंभीर तत्व होते हैं, उनकी पहचान कैसे की जाए ? किसी संस्था के उद्देश्य क्या हैं? हिन्दी अकादमी का कार्य क्या केवल साहित्य का पोषण है या हिन्दी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार से भी उसका कुछ लेना-देना है? साहित्य लोकप्रिय भी होता है और शास्त्रीय भी। जनता की भाषा को लेकर शास्त्रीय लोग हमेशा ही कुपित होते रहे हैं। वे लोकप्रिय साहित्यकार को गंभीर मानते ही नहीं। मैं पूछता हूं कि क्या लोकप्रिय साहित्य गंभीर साहित्य नहीं है? और क्या सारा कथित गंभीर साहित्य सचमुच गंभीर है? साहित्य का आकलन विचार-चिंतन और जीवन-मूल्यों के आधार पर किया जाना चाहिए । देखना चाहिए कि किसका साहित्य समाज को बीमार बनाता है और किसका स्वस्थ। हंसी तो स्वास्थ्य की निशानी है। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के तौर पर मैं हिन्दी सेवियों को साथ लेकर चलना चाहता हूं। इसलिए धैर्य न खोए ं, काम करने दें, उतावली न करें। अपमान की भाषा अच्छी नहीं होती है। आलोचना करने वाले आत्मालोचना भी करें। सभी पक्षों को जाने बिना निर्णायक न बनें। मैंने साहित्य का गहन अध्ययन किया है, मुक्तिबोध पर लिखी मेरी पुस्तकें आज भी विवि स्तर पर मानक मानी जाती हैं। मुक्तिबोध ने सिखाया है कि अनुभव प्रक्रिया से विवेक निष्कर्षों तक पहुंचो और निष्कर्षों को क्रियागत परिणति तक पहुंचाआ॓। मेरा हास्य व्यंग्य लेखन भी इस शिक्षा से प्रभावित रहा है।
क्या कहता है साहित्य जगत
विवाद के कारण हुआ बैचैन : विश्वनाथ त्रिपाठी
हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष पद, सचिव पर दबाब डालकर इस्तीफा देने और शलाका सम्मान को लेकर हुए विवाद ने बैचन कर दिया है। पिछले दो सालों में मैं अकादमी की किसी बैठक में नहीं जा पाया। मैंने हिंदी अकादमी की संचालन समिति से इस्तीफा दिया है, अकादमी से नहीं। मैं उम्र को देखते हुए अपना समय रचनात्मक कामों में लगाना चाहता हूं। जहां तक अशोक चक्रधर के उपाध्यक्ष बनाये जाने का सवाल है, मैं न तो उसके विरूद्ध हूं और न ही साथ खड़ा हूं। जिस कदर उन्हें लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है, ए ेसे में उन्हें उपाध्यक्ष के नाते तटस्थ रहने को लेकर बयान देना चाहिए , जिससे पता चले कि जो उनका विरोध कर रहे हैं और जो दोस्त हैं, उनके लिए बतौर उपाध्यक्ष समान भाव रखते हैं।
अकादमी की छवि को हो सकता है नुकसान : अर्चना वर्मा
हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद साहित्य के उस प्रतिनिधि को दिया गया है जो मंचीय है, गंभीर नहीं है। अशोक चक्रधर के अलावा सुरेंद्र शर्मा भी कई सालों से संचालन समिति में शामिल हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें कोई पद दे दिया जाए । हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अकादमी के सबसे महंगे कार्यक्रम मंचीय ही होते हैं। जहां नित्यानंद तिवारी, विश्वनात्र त्रिपाठी जैसे गंभीर लोग मौजूद हों, वहां उन्हें उपाध्यक्ष पद देने से अकादमी की नीति पर सवाल उठना लाजिमी है। साहित्य-संस्कृति अकादमी को राजनीति दुम समझती है। अशोक चक्रधर से मेरा कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं है लेकिन उनकी जो छवि है उससे अकादमिक छवि को नुकसान हो सकता है।
विपरीत परिस्थितियां है कारण : ज्योतिष जोशी
अकादमी की विपरीत परिस्थितियों के कारण मेरे लिए वहां काम करना संभव नहीं था। यहां गंभीर कार्यक्रमों, महत्वपूर्ण अकादमिक पुस्तकों के प्रकाशनों और उनकी संभावनों और योजनाओं में कमी के आसार दिख रहे थे। ए ेसे में मुझे लगा कि मेरी यहां कोई रचनात्मकता और प्रभावी भूमिका नहीं रहने वाली है। जिस उद्देश्य को लेकर मैं काम कर रह था, वह हिंदी अकादमी की स्थापना के मूल उद्देश्य थे। इससे यह भटकता दिखा तो यहां से मुक्ति पाना ज्यादा उचित लगा।
मनोरंजक साहित्य इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का अंग : नित्यानंद तिवारी
मैंने अशोक चक्रधर की वजह से इस्तीफा नहीं दिया है। मैंने इस्तीफा पिछली कार्यकारिणी में कृष्ण बलदेव वैघ का शलाका सम्मान स्थगित करने को लेकर दिया है। मैंने तय किया था कि यह मामला फिर जब कार्यकारिणी के सामने आए गा तो इस बार भी वैघ के नाम पर ही जोर दूंगा लेकिन संचालन समिति इसके कार्यकाल से पहले ही भंग कर दी गई। ए ेसे में मैंने काफी पहले ही त्यागपत्र देने का मन बना लिया था। उस वक्त तक तो अशोक आए भी नहीं थे। हां, ए क अखबार में खबर आई थी कि अशोक चक्रधर ने कहा कि मैं मंच का कवि हूं और साहित्य को मनोरंजन मानता हूं। हालांकि मैं इस बयान का विरोध कार्यकारिणी में रहते भी कर सकता था। अशोक से मेरा कोई विरोध नहीं है लेकिन अफसर और राजनेता के सीधे हस्तक्षेप का विरोध अवश्य है। साहित्य संबंधी उनके विचार को लेकर मेरा विरोध था। हास्य-व्यंग्य लेखन काफी कठिन काम है लेकिन मंच के जरिए पैसे कमाना या उपभोक्ता पैदा करने वाली भाषा साहित्य कैसे हो सकता है। साहित्य यदि मनोरंजन करता है तो वह इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का अंग हो गया।
स्वायत्ता व कामकाज इस्तीफे का कारण : बृजेन्द्र त्रिपाठी
मेरा इस्तीफा अकादमी की स्वायत्ता और कामकाज को लेकर है। शलाका सम्मान को लेकर जिस तरह कृष्ण बलदेव वैघ के बारे में कहा गया कि वह अश्लील लेखक हैं, यह बहुत अशोभनीय है। यदि पुरस्कार और सम्मान को लेकर नौकरशाह और सरकार के कहने पर अमल हो तो यह गलत है। फैसला लेखकों और साहित्यकारों पर छोड़ा जाना चाहिए । जब सब सरकार ही तय करेगी तो साहित्यकार वहां क्या करेंगे। जहां तक अशोक चक्रधर के अकादमी के उपाध्यक्ष बनने का सवाल है, मेरा इस्तीफा इस मामले से नहीं जुड़ा है। मेरा इस्तीफा स्वायत्तता को लेकर है व्यक्ति विशेष को लेकर नहीं।
(यह आलेख राष्ट्रीय सहारा में रविवार यानि नौ अगस्त,२००९ को मंथन पेज पर छपा है.)