नूरजहां को लोकप्रिय संगीत में क्रांति लाने और पंजाबी लोकगीतों को नया आयाम देने का श्रेय जाता है। विभाजन के बाद अपने पति के साथ वह बंबई छोड़कर लाहौर चली गईं इंतजार है तेरा, दिल बेकरार है मेरा, आजा न सता और, आजा न रूला‘ गीत आज भी लोग गुनगुनाते है। फिल्म ’बड़ी मां‘ का यह गीत है जिसे जिया सरहदी ने लिखा और संगीतबद्ध किया था दत्ता कोरेगांवकर ने। और तो और फिल्म ’गांव की गोरी‘ का गीत ’बैठी हूं तेरी याद का लेकर के सहारा, आ जाओ के चमके मेरी किस्मत का सितारा‘ के बोल देखिये। किस तरह दिल की वेदना शब्दों में पिरोकर सामने आती है। इन गानों को गाकर ’मल्लिका ए तरन्नुम‘ नूरजहां ने फिल्मी दुनिया को ऐसा अनमोल तोहफा दिया है जो आज भी लोगों के दिलों में बरकरार है।
’नूरजहां‘ का असली नाम ’अल्ला वसई‘ था। उनका जन्म 21 सितम्बर, 1926 को अविभाजित भारत के कसूर नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता-माता पेशेवर संगीतकार मदद अली और फतेह बीबी थे और वह उनकी 11 संतानों में से एक थीं। उनको बचपन से ही संगीत के प्रति गहरा लगाव था और पांच-छह साल की उम््रा से ही गायन शुरू कर दिया था। उनकी रुचि को देखते हुए मां ने उन्हें संगीत का प्रशिक्षण दिलाने का इंतजाम किया। उन दिनों कलकत्ता थियेटर का गढ़ हुआ करता था। इसी को ध्यान में रखकर उनका परिवार 1930 के दशक के मध्य में कलकत्ता चला गया। नूरजहां की गायकी से प्रभावित होकर संगीतकार गुलाम हैदर ने उन्हें केडी मेहरा की पहली पंजाबी फिल्म ’शीला‘ उर्फ ’पिंड दी कुड़ी‘ में उन्हें बाल कलाकार की संक्षिप्त भूमिका दी और एक गाना भी गवाया। वर्ष 1935 में रिलीज हुई यह फिल्म पूरे पंजाब में हिट रही। ’गुल-बकावली‘, ’यमला जट‘ और ’चौधरी‘ में नूरजहां ने बाल कलाकार के रूप में पूरे पंजाब में धूम मचा दी थी।
बाल कलाकार होने के बावजूद नूरजहां का नाम अपनी दूसरी ही फिल्म से प्रचार विज्ञापन में हीरोइन के बाद दूसरे नंबर पर आने लगा। ’फख््रो इस्लाम‘, ’मिस्टर 420‘, ’मिस्टर एंड मिसेज मुंबई‘, ’हीर सयाल‘, ’इम्पीरियल मेल‘ जैसी फिल्मों के आने के बाद यह तय हो गया था कि उनकी आवाज के बिना फिल्म हिट करना आसान नहीं है। जीवन के 21वें साल में नूरजहां ने भारत और हिंदी फिल्में छोड़ दीं। वह लाहौर चली गईं और निर्देशक के तौर पर उनकी पहली फिल्म ’चुनवे‘ सुपरहिट हुई। बाद में सिबतैन फजली की ’दोपट्टा‘, एम रशीद की ’पाटे खान‘ और मसूद परवेज की ’इंतिजार‘ भी सफल रही। यहां नूरजहां का कांट्रेट पंचोली आर्ट स्टूडियोज से हुआ। एक स्टेज शो के दौरान सैय्यद शौकत हुसैन रिजवी ने उन्हें अपनी पहली फिल्म ’खानदान‘ के लिए हीरोइन चुन लिया। अभिनेत्री के रूप में पहली ही फिल्म के बाद पूरे हिन्दुस्तान में उनके गीतों और उनके स्वाभाविक अभिनय की धूम मच गई और मुंबई के फिल्म निर्माता उन्हें मुंबई ले जाने के लिए लाहौर पहुंच गए। 1943 में वह बंबई चली आईं। महज चार साल की संक्षिप्त अवधि के भीतर वह अपने सभी समकालीनों से आगे निकल गईं। बंबई के फिल्म निर्माता वीएम व्यास की दो फिल्मों ’दुहाई‘ और ’नौकर‘ और जिया सरहदी की फिल्म ’नादान‘ के पिट जाने के बाद भी नूरजहां की शोहरत पर कोई असर नहीं पड़ा।
अमरनाथ की ’गांव की गोरी‘, शौकत हुसैन रिजवी की ’जीनत‘ और महबूब की गीतों से सजी रोमांटिक फिल्म ’अनमोल घड़ी‘, ’हमजोली‘ उनकी हिट फिल्म रही। ’अनमोल घड़ी‘ का संगीत नौशाद ने दिया था। उसके गीत ’आवाज दे कहां है‘, ’जवां है मोहब्बत‘ और ’मेरे बचपन के साथी‘ जैसे गीत आज भी लोगों की जुबां पर है। लता मंगेशकर भी नूरजहां को अपना गुरु मानती है। 1945 में नूरजहां की लोकप्रियता अपने पूरे शबाब पर थी। उनको लोकप्रिय संगीत में क्रांति लाने और पंजाबी लोकगीतों को नया आयाम देने का श्रेय जाता है। नूरजहां विभाजन के बाद अपने पति के साथ बंबई छोड़कर वापस लाहौर चली गईं। उन्होंने अपने से नौ साल छोटे एजाज दुर्रानी से दूसरी शादी की। उनकी पहली उर्दू फिल्म ’दुपट्टा‘ थी। इसके गीत ’चांदनी रातें..चांदनी रातें‘ आज भी लोगों की जुबां पर हैं। नूरजहां की आखिरी फिल्म बतौर अभिनेत्री ’बाजी‘ थी जो 1963 में प्रदर्शित हुई। उन्होंने पाकिस्तान में 14 फिल्में बनाईं जिसमें 10 उर्दू फिल्में थीं। पाकिस्तान में पाश्र्वगायिका के तौर पर उनकी पहली फिल्म ’जान-ए-बहार‘ थी। इस फिल्म का ’कैसा नसीब लाई‘ गाना काफी लोकप्रिय हुआ। उन्हें मनोरंजन के क्षेत्र में पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान ’तमगा-ए-इम्तियाज‘ से सम्मानित किया गया था। 23 दिसम्बर, 2000 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।
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