7/24/2007

नेताजी का इंटरव्यू

पिछले दिनों अपनी छोटी सी लाइब्रेरी में उलटते-पलटते नजर सफेद रंग की पुरानी डायरी पर पड़ी। पुरानी यादों को ताजा करते हुए नजर नेताजी का इंटरव्यू नामक कविता पर गई। यह कविता मैंने २८ जुलाई १९९९ को लिखी थी। जहां तक स्मरण शक्ति पर दबाव डालता हूं तो शायद यह कविता भागलपुर में रहने के दौरान लिखी गई थी। सोचने के लिए विवश होता हूं कि इस कविता को मैंने उस दौर में लिखा था जब ना तो मैंने कभी सोचा था कि पत्रकारिता में आउंगा और न ही साहित्य में रूचि थी। साइंस का छात्र था और उसी दुनिया में मस्त था। हूबहू कविता आपके सामने है। आज के दौर में भी प्रासंगिक है। ...विनीत

नेताजी का इंटरव्यू

एक पत्रकार ने एक नेता से सवाल किया
सांसद बनने का क्या है राज
नेताजी मुस्कराए और बोले
चूकि मेरे इलाके में है नपुंसकों का समाज।

दूसरा सवाल था
नेताजी क्या होगा आपका सबसे पहला काम
नेताजी पान चबाते हुए जवाब दिया
लिखवाउंगा घोटालेबाजों में अपना नाम।

पत्रकार ने पूछा
आप अपने कोष से किस काम में देंगे पैसा ज्यादा
नेताजी अपराधी टाइप के एक व्यक्ति से कंधा मिलाकर बोले
जिस काम से अपराधियों का होगा फायदा।

अगला सवाल पत्रकार ने दागा
इस बार मंत्री पद पाने की बारी किसकी
नेताजी शराब का घूंट लेते हुए कहा
जिस सांसद के पास होगा ज्यादा व्हीस्की।

पत्रकार बौखलाया और अगला सवाल दागा
इस बार प्रधानमंत्री बनने की किसकी है बारी
नेताजी अपना मुंह बगल में बैठी एक लड़की के गाल से सटाते हुए कहा
जिसके साथ होगी सबसे ज्यादा चरित्रहीन नारी।

खुशी-खुशी आया था इंटरव्यू लेने नेताजी का पत्रकार
लौट रहा था खीज कर लेकिन सोच रहा था
कल सबसे ज्यादा बिकेगा हमारा अखबार।

7/22/2007

मीडिया की अबूझ पहेली

कितनी बातें सच हैं कितनी नहीं इसका आंकलन करना इतना आसान नहीं होता। जिस गंभीर पत्रकारिता की बात को लेकर बहस जारी है क्या इसकी जिम्मेदारी सिफॆ न्यूज चैनल की है। अधिकतर चैनलों में वरिष्ठ पदों पर बैठे लोग क्या दूसरे ग्रहों से आए प्राणी हैं। यकीन मानिए इन लोगों में अधिकतर प्रिंट में काफी कलम घिसे हैं। सारा दोष
टीवी चैनलों को नहीं दिया जा सकता। क्या इस बात का कोई जवाब दे सकता है कि प्रिंट में फीचर नहीं छपती है। प्रिंट के पास पेज बढ़ाने का आप्शंस होता है। वे गंभीर समाचारों के लिए कुछ पेज निधारित कर सकते हैं। फीचर स्टोरी के लिए अलग से चार पेज शामिल किया जा सकता है। विशेष मौके पर पेज तुरंत बढ़ाया जा सकता है। बच्चों का कोना भी होता है। ज्योतिष और भूत-प्रेत के लिए भी जगह होता है। हां यह बात और है कि लोग न्यूज पेपर को संभालकर जुगाली कर पढ़ सकते हैं।
दूसरी तरफ टीवी न्यूज चैनलों की दुनिया कुछ और ही होती है। चौबिस घंटे के समय में ही उन्हें सारा कुछ दिखाना होता है। गंभीर समाचारों के लिए भी समय चाहिए। मनोरंजन के लिए भी समय चाहिए। सभी वगों द्वारा देखे जाने वाले समाचार चाहिए। फिर प्रिंट पत्रकारिता के इतने साल बीतने के बाद भी गलतियां हो रही है तो भारत में बमुश्किल से दस साल हुए टीवी मीडिया को दोष देने के पीछे इतना हायतौबा क्यों मचाया जा रहा है।
समय बदल रहा है। बदलने की काफी गुंजाइश है। अभी तो सारे मामले में प्रैक्टिकल हो रहा है। धीरज धरिए। कालांतर में सारी बातें समझ में आने लगेगी और हासिए से बाहर रह रहे लोगों की आवाजें दुनिया के हर कोने में सुनाई देगी। और फिर बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी।

7/20/2007

यह कैसी मौत है

पूरे देश की नजर गुरुवार को राष्टपति चुनाव के गहमागहमी की ओर थी। दूसरी ओर दिल्ली सहित एनसीआर में घटी घटनाएं एक बारगी सोचने के लिए विवश करती हैं। चुनाव में अलग-अलग दलों के नेताऒं ने अपनी अंतरात्मा की आवाज पर राग अलापा। अन्नादुमक एमडीएमके (वायको) इंडियन लोक दल के अलावा कई दलों के पाला बदलते हुए वोट डाला। शिवसेना ने पाटिल को वोट दिया। गुजरात में भाजपा के नेता बागी तेवर अपनाते हुए खुलेआम पटिल को वोट डाला। तृणमूल कांगेस और जनतादल (एस) ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। राजस्थान गुजरात गोवा हिमाचल मणिपुर सिक्कम पांडिचेरी में शत फीसदी मतदान हुआ।
गुरुवार को ही राजधानी दिल्ली से सटे गेटर नोएडा के जेपी इंटरनेशनल की स्टूडेंट तन्वी का अपहरण कर लिया गया। वह दसवीं क्लास में पढ़ाई कर रही है। इस इलाके के एच-८७ बीटा दो में रहने वाली तन्वी ने बाद में बरैली से अपने पापा को फोन कर अहपरण की जानकारी दी।
फरीदाबाद के पाश इलाके में शामिल अशोका इंकलेव भाग दो में रहने वाली श्रुति की मौत की पोस्टमाटॆम रिपोटॆ ने इस मामले को नया मोड़ ले लिया है। मौत का कारण फांसी लगाना बताया गया है। मृतका के शरीर पर कोई भी चोट का निशान नहीं है। उसे करीब डेढ़ हफ्ते का गभॆ था और उसकी शादी दो माह बाद होने वाली थी। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया से बीए कर रही थी।
एक ऒर जहां एक महिला देश के सवोॆच्य राजनीतिक शिखर छूने के लिए बेताब है वहीं दो लड़कियों के साथ घटित घटना समाज और देश की दशा और दिशा का आईना कई ढ़ंग से दिखाया है। हर कदम पर महिलाऒं को किस तरह मौत का सामना करना पड़ रहा है। क्या जान जाना ही मृत्यु का सत्य है। शरीर का निजीॆव होना ही सही मायने में मौत है। क्या घुट-घुट जीना मौत से बदतर नहीं है। आज के इस माहौल में मौत को किस तरह परिभाषित करेंगे।
जरा गौर करें कि एक ऒर जहां उस महिला के हाथों देश की तथाकथित सत्ता आने वाली है जो पद सिफॆ कहने के लिए सवोॆच्य है और पाटिल को अपने गुरु की आत्मा सुनने और समझने की शाक्ति हासिल है। सवाल यहां यह उठता है कि क्या उसमें गांधी के आखिरी व्यक्ति की अंतरात्मा की आवाज सुनने की ताकत है। कहीं एसा तो नहीं कि वह अपने या अपने खास की आत्मा के दशॆन और उनकी बात सुनने में समथॆ है।
नोएडा की तन्वी का स्कूल जाते वक्त अपहरण किस दिल्ली और एनसीआर की तश्वीर पेश करता है। यह घटना वहां घटी जहां कामनवेल्थ गेम के लिए अरबों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। गरीबों की बस्तियां उजाड़ी जा रही हैं। यही वही दिल्ली है जहां आज भी हजारों की की संख्या में लोग फुटपाथ पर अपनी रातें गुजारते हैं। क्या तन्वी का गेटर नोएडा से बरैली पहुंचने का रास्ता एक मौत की परिभाषा से क्या कम होगा। कार में अपहरणकताॆऒं से घिरी तन्वी की सांसें पूरे रास्ते किस तरह चल रही होगी इसका सहज अंदाजा लगाना मुश्किल है।
हरियाणा की औद्योगिक राजधानी के नाम से मशहूर फरीदाबाद में श्रुति की मौत वतॆमान सामाजिक वातावरण का नमूना भर है। हाल के दिनों में अपने आसपास किस तरह ये घटनाएं घट रही हैं इसके ताने-बाने की नींव कहीं न कहीं बचपन से पड़ती है। कुछ न सूझने पर मौत को गले लगाना कहां की बुद्धिमानी है। इस तरह की मौतों को क्या कहा जाएगा।
बंधुऒं आज नहीं तो कल इतिहास हर व्यक्ति से इस सवाल का जवाब मांगेगा कि गुरुवार को हुई तीनों घटनाऒं से एक खास किस्म की मौत से समाज और सभ्यता का दशॆन हो रहा है। कौन सी एसी शक्तियां हैं जो हमारे समाज को मौत की ऒर धकेल रही है। आज नहीं तो कल यह सवाल उठेगा कि यह कैसी मौतें हैं और कौन सी मौतें हैं।

7/17/2007

फूल के फूल हैं बनफूल

बंगाल के बहुचचित लेखकों में बनफूल यानि बलाईचंद मुखोपाध्याय शामिल हैं। मंडी हाउस स्थित वाणी पकाशन की दुकान में किताबें टटोलते हुए उस दिन उनका तैतीसवां उपन्यास दो मुसाफिर पर नजर टिक गई। इस उपन्यास के घटनाकम में एक अलग स्थिति और माहौल घटित होता है। इस उपन्यास में अनोखापन तथा रोचकता भी है।
बरसात की रात में नदी के घाट पर दो मुसाफिरों की मुलाकात होती हैं। उनमें से एक नौकरी की सिफारिश के लिए निकला हुआ युवक है तो दूसरा रहस्यमय सन्यासी है। पानी से बचने तथा रात बिताने में बातों बात में उनके जीवन के विभिन्न अनुभवों के सीन उभरते हैं। उपन्यास के जरिए बेहतरीन संदेश देने का काम किया गया है। उपन्यास से एक बात उभरती है कि इस दुनिया में सभी मुसाफिर हैं। बिना एक दूसरे की मदद से मंजिल तक पहुंचना आसान नहीं होता है। बनफूल ने मानवता की बातें भी सामने रखी हैं।
दो मुसाफिर को पढ़ते वक्त भागलपुर की यादें ताजा हो जाती हैं। इसी शहर तथा इसके आसपास के इलाकों में बनफूल अपने जीवन का बेहतरीन समय बिताया था। भागलपुर रेलवे स्टेशन के घंटाघर की ऒर जाने वाली सड़क पटल बाबू रोड कहलाती है। आंदोलन के दौरान पटल बाबू ने फिरंगियों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी थी। भारत के पहले राष्टपति राजेंद बाबू के काफी नजदीकी थे। राजेंद बाबू ने अपनी आत्मकथा में उनके पटल बाबू के बारे में काफी कुछ लिखा है।
इन्हीं पटल बाबू के मकान में कभी बनफूल का क्लिनिक हुआ करता था। आज भी यह मकान अपने अतीत को याद करते हुए सीना ताने खड़ा है। सफेद रंग के पुते इस मकान में फिलहाल सिंडिकेट बैंक चल रहा है जो रेलवे स्टेशन से घंटाघर जाते हुए अजंता सिनेमा हाल से थोड़ा पहले उसके सामने है। मुंदीचक मोहल्ले से शाह माकेट जाने के रास्ते जहां पटल बाबू रोड मिलता है उसी कोने में यह मकान है।
पटल बाबू के जीवन पर कभी कुछ लिखने की तमन्ना पालने वाला इन पंक्तियों के लेखक को जानकारी इकट्ठी करने के दौरान बनफूल के बारे में जानकारी मिली थी। वहां रहने वाले पटल बाबू के संबंधी लेखक को उस कमरे में भी लग गए थे जहां बनफूल मरीजों को देखा करते थे। मकान के दो हिस्सों में बने बरामदे पर बैठ कर वे कहानी और उपन्यास की रचनाएं किया करते थे।
उपन्यास दो मुसाफिर के पिछले पन्ने पर बनफूल की जीवनी को लेकर जानकारी दी गई है।
जन्म- १९ जुलाई १८९९ बिहार के पूणियां जिले के मनिहारी नामक गांव में (बतातें चलें कि अब मनिहारी कटिहार जिले में है)
कोलकाता मेडिकल कालेज से डाक्टरी की पढ़ाई करने के बाद बनफूल सरकारी आदेश पर आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए पटना गए। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे पटना मेडिकल कालेज और उसके बाद अजीमगंज अस्पताल में कुछ दिनों तक काम किया। बचपन से ही उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया था। उनका मन जंगलों में इतना लगता था कि उन्होंने अपना नाम बनफूल ही रखा लिया। बाद में वे कहानी तथा उपन्यास भी लिखने लगे। मनोनुकूल परिस्थिति न मिलने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़कर मनिहारी गांव के पास ही दि सेरोक्लिनिक की स्थापना की। १९६८ में उनहत्तर साल की अवस्था में भागलपुर को हमेशा के लिए छोड़कर कोलकाता में बस गए। १९७९ में उनका निधन हो गया। चचित कृतियां हैं-
जंगम
रात्रि
अग्निश्वर
भुवनसोम
हाटे बाजारे
स्थावर
ल‌‌क्छमी का आगमन
सहित ५६ उपन्यास तथा लघुकथा के दो संगह तथा कविता आदि विविध विषयों पर अन्यान्य कृतियां।