2/26/2011

समाज का नया आईना ‘अत्याचारिणी नारी’


महिलाओं पर पुरुषों द्वारा किया जाने वाला अत्याचार नया नहीं है। कभी वह भी दौर रहा है जब महिलाओं को पुरुषों के पैरों की जूती समझा जाता था। वे हर समय घबराई और डरी-सहमी सी रहती थीं। उनका अपने घर की चारदीवारी से बाहर निकलना भी गुनाह माना जाता था। लेकिन बदलते वक्त के साथ महिलाओं की स्थिति बदली और आज की महिलाएं न सिर्फ घर से बाहर निकल काम करती हैं बल्कि पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भी चलती है। वह तंग आकर शराबी पति की पिटाई तो करती ही हैं, दहेज लोभियों को बाराती के साथ वापस भी लौटा देती हैं। इन्हीं मसलों पर गौर करता नाटक है ‘अत्याचारी नारी।’
 नाटककार का मानना है कि यदि पुरुष महिलाओं पर अत्याचार नहीं करता तो आज पुरुषों की यह स्थिति नहीं होती। यदि पुरुष पहले महिलाओं पर अत्याचार नहीं करता तो महिलाएं अत्याचारी बनने की ओर अग्रसर नहीं होती। इस नाटक के जरिए लोगों के सामने यह दिखाने की कोशिश की गई है कि अगर पुरुष प्रधान समाज नारी प्रधान समाज बन जाए तो क्या होगा? जिस तरह अभी तक पुरुष महिला पर अत्याचार करता आया है, उसी तरह महिला भी करने लगे, तो क्या होगा? नाटक की शुरुआत में सूत्रधार आज और कल का अंतर बताता है। गजरी नामक महिला बदमाश कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के मानव के चेहरे पर तेजाब फेंक देती है। उसके कुछ ही देर में मोस्ट वांटेड काया बहन अपनी शार्गिद गजरी के साथ मिलकर अर्पित नामक लड़के का बलात्कार कर अपने अब तक छप्पन बलात्कार पूरे करती है। 
यह घटना न्यूज चैनलों के लिए ब्रेकिंग न्यूज थी। संवाददाता छुई-मुई रंजन बलात्कार के शिकार अर्पित से सवाल पूछता है कि आपका बलात्कार किस तरह किया गया? क्या आपके साथ कोई जोर-जबर्दस्ती की गई? इस वक्त आप कैसा महसूस कर रहे हैं? जब आपका बलात्कार हो रहा था तो कैसा महसूस कर रहे थे? हालांकि दोनों घटनाओं के लिए एसीपी चौटाला मानव और अर्पित को ही दोषी ठहराते हैं। वहीं, इस घटना से परेशान अर्पित जब घर पहुंचता है तो उसकी मां चुन्नी देवी उसे मारती है और अर्पित की शादी उससे बड़ी उम्र की शराबी रोक्सी से कर देती है। रोक्सी पर अपने पहले पति को जलाकार मारने का आरोप था। शादी के बाद रोक्सी अर्पित पर हर रोज जुल्म करती है और एक दिन उसको जलाकर मार डालती है।
 बहरहाल, कॉमेडी नाटक ‘अत्याचारी नारी’ के जरिए समाज को संदेश देने का काम किया गया है। इसके तहत छेड़छाड़, बलात्कार, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा आदि समस्याएं सामने रखी गई हैं।

2/15/2011

दुनिया बदलता सोशल नेटवर्क


चाहे मुंबई में गणपति विसर्जन हो या जंतर-मंतर पर मजदूर यूनियन का धरना-प्रदशर्न या फिर कोलकाता में भूख हड़ताल का मामला, भारत में लोगों का सड़कों पर उतरना कोई नया नहीं है। जहां अधिकतर शहर र्वल्ड क्लास सिटी में तब्दील हो रहा है वहीं आन्दोलन या प्रदर्शन के लिए जगह भी खत्म होती जा रही है। खासकर उच्च वर्ग के लोग तो शायद ही सड़क पर आते हैं। जगह कम होने का कारण सिर्फ युवा आबादी का अधिकांश समय साइबर स्पेस में रहना नहीं है। बल्कि इसका योगदान शिफ्ट कर गया है। मिस्र और टय़ूनीशिया में ऐतिहासिक बदलाव डिजिटल स्पेस की नई कहानी कह रहा है, जिस विरोध को न तो पूरी तरह कभी भी बदला जा सकता है और न ही खत्म किया जा सकता है। 
जब टय़ूनीशिया में एक 26 वर्षीय यूनिर्वसटिी स्नातक की आमदनी का जरिया खत्म हो गया क्योंकि पुलिस ने उसके फलों और सब्जियों के ठेले पर कब्जा कर लिया था। तो वह आग के नजदीक बैठ कर इंटरनेट के माध्यम से पूरे देश के लोगों के सामने अपना विरोध रखा। लोग सड़कों पर उतर आए और आखिर तब तक विरोध करते रहे जब तक कि राष्ट्रपति जियान अल आबिदीन बेन अली देश छोड़कर भाग नहीं गए। टय़ूनीशिया का एक नागरिक अपने ट्विटर पर लिखता भी है कि इंटरनेट के बिना संभव था कि हमारा चुपचाप कत्लेआम कर दिया जाता और किसी को मालूम भी नहीं होता। पांच साल पहले इस तरह सत्ता परिवर्तन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी क्योंकि फेसबुक और ट्विटर के न होने पर इस संघर्ष पर लगाम कस दी जाती और दुनिया को पता भी नहीं चलता। मिस्र में भी यही हुआ। टेक्नालॉजी ने दुनिया के सामने संघर्ष की तस्वीर सामने रखी और काफी कम समय में अधिकतर लोगों के पास जानकारी पहुंचने लगी। तहरीर चौक पर किस तरह भीड़ उमड़ पड़ी, इसे दुनिया के लोगों ने देखा और जाना। भारत का राजनीतिक परिदृश्य काफी अलग है। तकनीक लोगों को खुलापन, रास्ता और पारदर्शिता का नया रूप देता है। 
शुरु आत से ही भारत के लोग काफी वेब सेवी रहे हैं और काफी कुछ करते भी रहे हैं। मसलन, पिंक चड्डी कंपेन, नए तरह से विरोध का मसला था और इसके जरिए देखा जा सकता है कि कैसे इंटरनेट से जुड़े लोग किसी चीज को सामने लाते हैं और विरोध प्रदशर्न करते है। अब तो लोग इंटरनेट के साथ ही बड़े हो रहे हैं। बत्ती गुल, जस्टिस फॉर जेसिका, जस्टिस फॉर विनायक सेन, 2008 में मुंबई हमले के बाद गेटवे ऑफ इंडिया रैली इनमें खास रहे हैं। और तो और हाल ही में ‘आई एम अरु णाचल, ड्रीम ऑन चाइना’ मामला सभी को याद ही होगा, जो सोशल मीडिया के जरिए विरोध के नया आयाम गढ़ता नजर आया। आज के दौर में ये डिजिटल माध्यम लोगों को एकजुट करने का माध्यम बन गए हैं, जिसके जरिए लोग अपनी बात रखते हैं, बहस करते हैं। कोई भी आंदोलन अब इसकी पहुंच के बिना संभव नहीं है। इसके जरिए हम भले ही भौतिक रूप से एक जगह नहीं हो पाते हैं लेकिन एक जोरदार बहस जरूर करते हैं।
 ‘फाइट बैक’, जिसने ऑन लाइन जेंडर इक्वेलिटी कैंपेन 2008 में लांच किया था और अब इस फेसबुक ग्रुप में 4000 सदस्य हैं। इस ग्रुप के संस्थापक जुबिन ड्राइवर कहते हैं कि अभी भारत में डिजिटल असर होना बाकी है। उनका कहना है कि भारत में अभी करीब 700 मिलियन लोगों के पास मोबाइल है और जिस दिन इन मोबाइलों के जरिए लोग इंटरनेट का प्रयोग करने लगेंगे, उस दिन दुनिया वर्ग, जाति और भौगोलिक सीमाओं को तोड़कर सामने होगी। हालांकि साइबर विश्लेषकों का कहना है कि सोशल नेटवर्किंग की दुनिया में भले ही अंग्रेजी भाषी लोगों का वर्चस्व हो लेकिन फेसबुक, ट्विटर आदि ऑनलाइन माध्यम लोगों के संघर्ष में शामिल हो रही है, लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए विवश कर रही है। बहरहाल, इंटरनेट की दुनिया के साथ-साथ वायरलेस सोशल नेटवर्क गहरे तौर पर समाज में स्थान बना रहा है और संघर्ष या आंदोलन की नई जमीन तैयार कर रहा है। जहां बातें सहज खत्म नहीं होती बल्कि संघर्ष में भाग लेने वाले लोग काफी संभावनाओं के साथ अपने आइडिया और विश्वास को दूसरे लोगों या समुदायों या स्पेश में रखते हैं।

2/02/2011

जी, दिल है ही बच्चा


'दिल तो बच्चा है जी' के जरिए गंभीर और रियलिस्टिक फिल्में बनाने वाले मधुर भंडारकर ने नया प्रयोग किया है और गंभीरता व हास्य के पुट के बीच सामंजस्य स्थापित किया है.
हालांकि हिन्दी फिल्मों में हास्य की कमी कभी नहीं रही है. ऐसे में डेविड धवन, अनीज बज्मी, प्रियदर्शन की पंक्ति में अब मधुर भी खड़े हो गए हैं. 'चांदनी बार' से लेकर 'जेल' तक में दर्शकों ने मधुर के कामों में काफी गंभीरता देखी है जहां सिर्फ और सिर्फ मुद्दे की बात होती रही थी. कुछ ही दिन पहले फिल्म आई थी 'टर्निंग 30' जिसमें लड़कियों की सोच को बखूबी दिखाया गया था और इसी परिपेक्ष में 'दिल तो बच्चा है जी' को देखें तो उस प्लेटफार्म पर उस पुरुष सोच को पुख्ता करती नजर आती है जो दो तरह की जिंदगी जीते हैं.
'दिल तो बच्चा है जी' वास्तविकता के धरातल की कहानी है जिसके किरदार हमारे आसपास के लोग जैसे हैं तो घटनाएं और समस्याएं भी कुछ इतर नहीं. फिल्म की कहानी मुंबई में रह रहे तलाक के दरवाजे पर खड़े 38 साल के नरेन (अजय देवगन), आशिक मिजाज अभय (इमरान हाशमी) और संस्कारी मिलिंद (ओमी वैद्य) के जीवन की हैं. प्यार की तलाश में खड़े अलग-अलग उम्र के तीनों के स्वभाव एक-दूसरे से नहीं मिलते. प्रेम और विवाह को लेकर उनकी सोच भी अलग है. तीनों की कोई सच्ची प्रेमिका नहीं है. नरेन और मिलिंद को जहां उसकी प्रेमिकाएं भरपूर यूज करती हैं वहीं अभय यानी अबी प्ले ब्वाय होता है लेकिन जब उसे सच्चा प्यार होता है तो वह लड़की उसे ठुकरा देती है.
फिल्म शहरी समाज में आए परिवर्तन को बखूबी परिभाषित किया है जहां करियर और जिंदगी के मायने अलग-अलग हैं. जून पिंटो (शाजान पदमसी), गुनगुन सरकार (श्रद्धा दास) और निक्की नारंग (श्रुति हसन) बदलते समाज की मानसिकता को दर्शकों के सामने रखती हैं. रिश्तों को लेकर युवाओं की सोच को सामने रखने का काम मधुर ने किया है. अजय देवगन ने  बढ़िया काम किया है और उनकी आंखें भी फिल्म के किरदार के तौर पर सामने आती हैं. इमरान हाशमी अपने चिरपरिचित अंदाज में ही हैं. 'थ्री इडियट्स' के चतुर सेन यानी ओमी वैद्य फिर अपने किरदार से लोगों को हंसने के लिए मजबूर करते हैं. अभिनेत्रियों में श्रुति हसन का रोल छोटा है और शाजान पदमसी ने बढ़िया काम किया है. श्रद्धा दास ने गुनगुन सरकार के किरदार में जान डाल दी है. फिल्म में प्रीतम का संगीत है जो कर्णप्रिय तो हैं लेकिन कोई भी गाना लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ पाया है.
कहानी में नयापन नहीं होने के बावजूद दर्शकों को बांधे रखने में सक्षम है. पहले हाफ में काफी हंसी आती है लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म काफी सीरियस है. क्योंकि रोमांटिक कॉमेडी होने के साथ इसमें रियलिस्टिक टच है और मधुर स्टाइल पूरी फिल्म में नजर आती है. बावजूद इसके, कहीं न कहीं, डायलॉग, सिनेमेटोग्राफी में साफ-साफ कमी नजर आती है. हां, सेंसर बोर्ड ने किस पैमाने के तहत इसे 'ए' सर्टिफिकेट दिया, यह शायद ही किसी को समझ में आए. जबकि काफी भद्दे और अश्लील डायलॉग वाली फिल्में इधर आई हैं और उन्हें एडल्ट की श्रेणी में शामिल नहीं किया गया.