जब साहित्य पर राजनीति और नौकरशाही हावी हो जाती है तो रचनात्मकता के लिए जगह की गुंजाइश कम हो जाती है। ऐसे में बहुतेरे विवाद इस कदर घुलमिल जाते हैं कि उनको अलग करना काफी कठिन होता है। कभी पद को लेकर बवाल उठ खड़ा होता है तो कभी पुरस्कार व सम्मान देने के निर्णय को चुनौती का सामना करना पड़ता है. लोकप्रिय और गंभीर लेखन और इससे इतर भी सवालिया निशान लगाए जाने लगते हैं। इस बीच हिन्दी अकादमी को लेकर जिस कदर कई मामले चाहे- अशोक चक्रधर को उपाध्यक्ष बनाने का हो या अकादमी की स्वायत्तता के साथ-साथ शलाका सम्मान को लेकर बवाल, काफी गंभीर हैं और अकादमी की छवि पर सवाल भी।
हिन्दी अकादमी के इतिहास में पहली बार किसी लोकप्रिय लेखक को उपाध्यक्ष के पद के लिए दिल्ली सरकार ने मनोनीत किया और इसके साथ ही लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य को लेकर विवाद खड़ा हो गया। यह लोकतंत्र की विडंबना ही है कि जो लेखन लोक से जितना दूर रहता है वह उतना ही गंभीर कहलाता है और हास्य-व्यंग्य से जुड़े साहित्यकारों को ‘विदूषक’ कहा जाता है। जैसा कि अशोक चक्रधर के मामले में हुआ।
शलाका सम्मान को लेकर भी अकादमी की कार्यकारिणी से लेकर संचालन समिति तक कई सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जिस कदर कृष्ण बलदेव वैघ को श्लाका सम्मान देने को लेकर डॉ. नित्यानंद तिवारी से लेकर डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी तक ने इस्तीफा दिया, वह अकादमी के भविष्य पर सवाल खड़ा करता है। ए क नेता के पत्र लिखने पर कि वैघ अश्लील लेखन करते हैं, वास्तव में साहित्यिक दिवालियापन ही माना जाए गा। क्योंकि इससे काफी हद तक साहित्य पर राजनीति के हावी होने की बू आती है।
अकादमी के 28 साल के इतिहास में यह पहली घटना है जब किसी सचिव के सामने इतनी विकट परिस्थिति आ गई कि उन्होंने अपने कार्यकाल से पहले ही इस्तीफा देना उचित समझा। पुरस्कार या सम्मान मिलना ए क अलग मसला है और रचनात्मक क्षमता के साथ भविष्वदृष्टा होना अलग मसला। गलती कहीं भी किसी से भी हुई हो गलती स्वीकार कर क्षमा मांगने से किसी का कद छोटा नहीं हो जाता। निर्णय पर पुनर्विचार करने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है।
‘नृप होई कोऊ हमें का हानी’ वाली बात साहित्य को याद रखने की जरूरत है। हिन्दी साहित्य का दायरा काफी व्यापक है। इस पर लगातार तकनीक और सूचना का दबाव है। साथ ही राजनीति की रोटी भी इसके सहारे जमकर सेंकी जाती रही है और जाती है। लेकिन साहित्यकार चाहे वह किसी भी सोच व समझ के हों, उन्हें बौद्धिक लड़ाई के लिए तैयार होना होगा। हिटलरशाही की जगह लोकतंत्र में विश्वास करना होगा और एक मंच पर बैठकर अपनी बातों को रखने का साहस भी जुटाना होगा। इस्तीफे देना या लेना, पुरस्कार या सम्मान देना या न देना, पद मिलना या न मिलना इतनी तुच्छ बातें हैं जिसका तत्कालीन संदर्भ में मायने तो होता है लेकिन कालजयी तो रचना और रचना प्रक्रिया से आए तत्व ही होते हैं।
आलोचना ही नहीं आत्मलोचना भी हो : अशोक चक्रधर
हित स्वार्थगत, परमार्थिक, अथवा परम आर्थिक कारणों से जब भी कोई विवाद जन्म लेता है तो किसी निरीह अथवा समर्थ की बलि लेना चाहता है। मुझे लगता है कि अंतरंग कारण कुछ और हैं, निशाना मुझे बना दिया गया। निजी तौर पर मेरा भारी अहित हुआ है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद मानद है, आर्थिक लाभ का नहीं। इसके लिए कोई वेतन नहीं होता। क्रियान्वयन की जिम्मेदारी का पद सचिव का है। उपाध्यक्ष का काम होता है दिशा-निर्देश और परामर्श देना। पुरस्कारों को लेकर जो विवाद हैं वे मेरे आने से पहले के हैं। इन दिनों आगामी कार्यक्रमों की रूपरेखा बन रही है। अभी तो मैं चीजों को समझने की प्रक्रिया में हूं। मेरी कार्यशैली पर अनावश्यक कयास लगाए जा रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक हिन्दी-प्रेमी समाज और मेरे देशवासी विभिन्न संचार माध्यमों के कारण, अनगिन छात्र विभिन्न विश्वविघालयों में मेरी अध्यापकीय सक्रियता के कारण, हिन्दी के भविष्य की चिंता रखने वाले मेरे कम्प्यूटर-कर्म के कारण, कुछ दर्शक मेरी अभिनय-प्रस्तुति और फिल्म-लेखन-निर्देशन-कार्यों के कारण, दशकों से मुझे प्यार करते हैं। यह प्रेम मेरी पूंजी है। लेकिन कुछ हैं जो केवल ‘हास्य कवि’ कहकर ए कांगी छवि बनाना चाहते हैं। ‘हास्य-कवि’ कहते हुए उनके मन में कोई सम्मान नहीं होता। वे हास्य और व्यंग्य को दोयम दर्जे का मानते है। लोकप्रियता क्योंकि उनके हिस्से में नहीं आ सकी, इसलिए उससे नफरत करते हैं।
जनतंत्र सभी को बोलने का अधिकार देता है, साथ ही कर्तव्यों का बोध भी कराता है। मैं मानता हूं कि विवादों को विमर्श की दिशा में मुड़ना चाहिए । करिए , विमर्श करिए कि साहित्य क्या है? कविता क्या है? उसकी कितनी धाराए ं हैं? हर धारा में गंभीर और अगंभीर तत्व होते हैं, उनकी पहचान कैसे की जाए ? किसी संस्था के उद्देश्य क्या हैं? हिन्दी अकादमी का कार्य क्या केवल साहित्य का पोषण है या हिन्दी भाषा के विकास और प्रचार-प्रसार से भी उसका कुछ लेना-देना है? साहित्य लोकप्रिय भी होता है और शास्त्रीय भी। जनता की भाषा को लेकर शास्त्रीय लोग हमेशा ही कुपित होते रहे हैं। वे लोकप्रिय साहित्यकार को गंभीर मानते ही नहीं। मैं पूछता हूं कि क्या लोकप्रिय साहित्य गंभीर साहित्य नहीं है? और क्या सारा कथित गंभीर साहित्य सचमुच गंभीर है? साहित्य का आकलन विचार-चिंतन और जीवन-मूल्यों के आधार पर किया जाना चाहिए । देखना चाहिए कि किसका साहित्य समाज को बीमार बनाता है और किसका स्वस्थ। हंसी तो स्वास्थ्य की निशानी है। हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के तौर पर मैं हिन्दी सेवियों को साथ लेकर चलना चाहता हूं। इसलिए धैर्य न खोए ं, काम करने दें, उतावली न करें। अपमान की भाषा अच्छी नहीं होती है। आलोचना करने वाले आत्मालोचना भी करें। सभी पक्षों को जाने बिना निर्णायक न बनें। मैंने साहित्य का गहन अध्ययन किया है, मुक्तिबोध पर लिखी मेरी पुस्तकें आज भी विवि स्तर पर मानक मानी जाती हैं। मुक्तिबोध ने सिखाया है कि अनुभव प्रक्रिया से विवेक निष्कर्षों तक पहुंचो और निष्कर्षों को क्रियागत परिणति तक पहुंचाआ॓। मेरा हास्य व्यंग्य लेखन भी इस शिक्षा से प्रभावित रहा है।
क्या कहता है साहित्य जगत
विवाद के कारण हुआ बैचैन : विश्वनाथ त्रिपाठी
हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष पद, सचिव पर दबाब डालकर इस्तीफा देने और शलाका सम्मान को लेकर हुए विवाद ने बैचन कर दिया है। पिछले दो सालों में मैं अकादमी की किसी बैठक में नहीं जा पाया। मैंने हिंदी अकादमी की संचालन समिति से इस्तीफा दिया है, अकादमी से नहीं। मैं उम्र को देखते हुए अपना समय रचनात्मक कामों में लगाना चाहता हूं। जहां तक अशोक चक्रधर के उपाध्यक्ष बनाये जाने का सवाल है, मैं न तो उसके विरूद्ध हूं और न ही साथ खड़ा हूं। जिस कदर उन्हें लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है, ए ेसे में उन्हें उपाध्यक्ष के नाते तटस्थ रहने को लेकर बयान देना चाहिए , जिससे पता चले कि जो उनका विरोध कर रहे हैं और जो दोस्त हैं, उनके लिए बतौर उपाध्यक्ष समान भाव रखते हैं।
अकादमी की छवि को हो सकता है नुकसान : अर्चना वर्मा
हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद साहित्य के उस प्रतिनिधि को दिया गया है जो मंचीय है, गंभीर नहीं है। अशोक चक्रधर के अलावा सुरेंद्र शर्मा भी कई सालों से संचालन समिति में शामिल हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें कोई पद दे दिया जाए । हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अकादमी के सबसे महंगे कार्यक्रम मंचीय ही होते हैं। जहां नित्यानंद तिवारी, विश्वनात्र त्रिपाठी जैसे गंभीर लोग मौजूद हों, वहां उन्हें उपाध्यक्ष पद देने से अकादमी की नीति पर सवाल उठना लाजिमी है। साहित्य-संस्कृति अकादमी को राजनीति दुम समझती है। अशोक चक्रधर से मेरा कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं है लेकिन उनकी जो छवि है उससे अकादमिक छवि को नुकसान हो सकता है।
विपरीत परिस्थितियां है कारण : ज्योतिष जोशी
अकादमी की विपरीत परिस्थितियों के कारण मेरे लिए वहां काम करना संभव नहीं था। यहां गंभीर कार्यक्रमों, महत्वपूर्ण अकादमिक पुस्तकों के प्रकाशनों और उनकी संभावनों और योजनाओं में कमी के आसार दिख रहे थे। ए ेसे में मुझे लगा कि मेरी यहां कोई रचनात्मकता और प्रभावी भूमिका नहीं रहने वाली है। जिस उद्देश्य को लेकर मैं काम कर रह था, वह हिंदी अकादमी की स्थापना के मूल उद्देश्य थे। इससे यह भटकता दिखा तो यहां से मुक्ति पाना ज्यादा उचित लगा।
मनोरंजक साहित्य इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का अंग : नित्यानंद तिवारी
मैंने अशोक चक्रधर की वजह से इस्तीफा नहीं दिया है। मैंने इस्तीफा पिछली कार्यकारिणी में कृष्ण बलदेव वैघ का शलाका सम्मान स्थगित करने को लेकर दिया है। मैंने तय किया था कि यह मामला फिर जब कार्यकारिणी के सामने आए गा तो इस बार भी वैघ के नाम पर ही जोर दूंगा लेकिन संचालन समिति इसके कार्यकाल से पहले ही भंग कर दी गई। ए ेसे में मैंने काफी पहले ही त्यागपत्र देने का मन बना लिया था। उस वक्त तक तो अशोक आए भी नहीं थे। हां, ए क अखबार में खबर आई थी कि अशोक चक्रधर ने कहा कि मैं मंच का कवि हूं और साहित्य को मनोरंजन मानता हूं। हालांकि मैं इस बयान का विरोध कार्यकारिणी में रहते भी कर सकता था। अशोक से मेरा कोई विरोध नहीं है लेकिन अफसर और राजनेता के सीधे हस्तक्षेप का विरोध अवश्य है। साहित्य संबंधी उनके विचार को लेकर मेरा विरोध था। हास्य-व्यंग्य लेखन काफी कठिन काम है लेकिन मंच के जरिए पैसे कमाना या उपभोक्ता पैदा करने वाली भाषा साहित्य कैसे हो सकता है। साहित्य यदि मनोरंजन करता है तो वह इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का अंग हो गया।
स्वायत्ता व कामकाज इस्तीफे का कारण : बृजेन्द्र त्रिपाठी
मेरा इस्तीफा अकादमी की स्वायत्ता और कामकाज को लेकर है। शलाका सम्मान को लेकर जिस तरह कृष्ण बलदेव वैघ के बारे में कहा गया कि वह अश्लील लेखक हैं, यह बहुत अशोभनीय है। यदि पुरस्कार और सम्मान को लेकर नौकरशाह और सरकार के कहने पर अमल हो तो यह गलत है। फैसला लेखकों और साहित्यकारों पर छोड़ा जाना चाहिए । जब सब सरकार ही तय करेगी तो साहित्यकार वहां क्या करेंगे। जहां तक अशोक चक्रधर के अकादमी के उपाध्यक्ष बनने का सवाल है, मेरा इस्तीफा इस मामले से नहीं जुड़ा है। मेरा इस्तीफा स्वायत्तता को लेकर है व्यक्ति विशेष को लेकर नहीं।
(यह आलेख राष्ट्रीय सहारा में रविवार यानि नौ अगस्त,२००९ को मंथन पेज पर छपा है.)
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