7/29/2009

दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सीइओ है इंदिरा नूई

चेन्नई के तमिल ब्राह्मण परिवार में पैदा सामान्य कदकाठी की लड़की ने शायद ही कभी सोचा था कि वह दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सीईआ॓ बनेगी। 28 अक्टूबर,1955 को जन्मी इंदिरा नूई ग्लोबल सप्लाई चेन लीडर्स ग्रुप ने 2009 के लिए ‘सीईआ॓ ऑफ द ईयर’ के खिताब से नवाजा है। भले ही वह न्यूयार्क से सटे कनेक्टीकट में रहती हैं, पेप्सिको की वरिष्ठतम अधिकारी हैं लेकिन आज भी भारतीय परंपराओं को मानती और निभाती हैं। शुद्ध शाकाहारी इंदिरा का पसंदीदा पहनावा जहां साड़ी है वहीं कंपनी की बोर्ड मीटिंग्स में भी इसे पहनकर जाना उन्हें नागवार नहीं लगता।
आज भी भारतीय परम्पराओं को निभाती नूई के घर में घी का दीपक हमेशा जलता रहता है। यही नहीं, दो बेटियों की मन नूई की भगवन गणेश में जबरदस्त आस्था है

नूई के घर के अंदर कोई भी जूता-चप्पल पहनकर नहीं जाता। उनके घर के विशालकाय पूजा घर में घी का दीपक हमेशा चलता रहता है और अगरबत्ती की भीनी-भीनी खुशबू लोगों को संभ्रांत भारतीय घर की नजीर पेश करता है। उनके पति न्यूयार्क स्थित कंसल्टिंग फर्म में पार्टनर हैं। दो बेटियों की मां नूई की भगवान गणेश में जबरदस्त आस्था है।
1994 में पेप्सिको ज्वाइन करने के बाद नूई ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 2006 में उन्होंने सीईआ॓ और 2007 में चेयरपर्सन का पदभार संभाला। फॉर्च्यून पत्रिका ने लगातार 2006, 2007 और 2008 में बिजनेस की दुनिया में सबसे ताकतवर महिलाओं में उन्हें शुमार किया है। 2008 में अमेरिकी न्यूज एंड वर्ल्ड रिपोर्ट ने उन्हें अमेरीका के बेहतरीन लीडर की लिस्ट में शामिल किया। भारत सरकार ने 2007 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया तो 2008 में उन्हें अमेरिकन एकेडमी ऑफ आर्ट एंड साइंस का फेलोशिप प्रदान किया गया।
अपनी मां से प्रभावित इंदिरा की प्रारंभिक शिक्षा काठमांडू स्थित वनस्थली हाईस्कूल से हुई। इसके बाद 1974 में उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से रसायन विज्ञान से स्नातक किया। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, कोलकाता से उन्होंने एमबीए की डिग्री हासिल की। कुछ दिनों तक जॉनसन एंड जॉनसन और एक अन्य टेक्सटाइल फर्म में काम करने के बाद 1978 में याले स्कूल ऑफ मैनेजमेंट में दाखिला लिया और पब्लिक एंड प्राइवेट मैनेजमेंट में मास्टर की डिग्री हासिल की।
अमेरिका की किसी कंपनी में इस मुकाम तक पहुंचना मायने रखता है। नूई का यहां तक का सफर काफी संघर्षपूर्ण रहा है। उनका कहना है जिस देश में महिला और रंग मायने रखता है वहां इस मुकाम को हासिल करने में छोटा-सा एक मंत्र काफी सहायक रहा है। उनका मंत्र है, ‘महिला होने के नाते पुरूष सहयोगी के मुकाबले दोगुनी मेहनत करो, सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी।’
(यह आलेख राष्ट्रीय सहारा के २९ जुलाई के अंक में prakashit हुआ है)

7/07/2009

क्या है क़व्वाली और क्या है मुजरा

क़व्वाली शब्द बना है अरबी भाषा के शब्द क़ौल से जिसका मतलब है उक्ति. क़व्वाल वो है जो अल्लाह और उसके पैग़ंबरों की प्रशंसा के गीत गाता है. क़व्वाली की परम्परा सूफ़ी पंथ से जुड़ी है. सूफ़ी पंथ और मुख्यधारा के इस्लाम में अंतर ये है कि मुख्यधारा के मुसलमान ये मानते हैं कि क़यामत के दिन ही अल्लाह तक पहुँचा जा सकता है जबकि सूफ़ी पंथ की सोच ये है कि अल्लाह तक जीवन के दौरान भी पहुँच सकते हैं. संगीत के अध्यात्मिक असर को सूफ़ीवाद में स्वीकार किया गया और भारतीय उपमहाद्वीप में क़व्वाली को लोकप्रिय बनाने का श्रेय जाता है ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को.

जहाँ तक मुजरे का सवाल है इसका अर्थ था प्रस्तुति. नृत्य संगीत की प्रस्तुति को मुजरा कहा जाता था. पुराने ज़माने में मुजरा करने वालों या वालियों को राजाओं और समाज के संभ्रांत वर्ग का समर्थन प्राप्त था लेकिन ब्रिटिश राज में ये समाप्त हो गया. फलस्वरूप बहुत से कलाकारों को जीवन यापन के लिए और रास्ते अपनाने पर मजबूर होना पडा.

7/05/2009

सफलता, शटल, शायना

एक मध्यवर्गीय परिवार यदि अपनी आमदनी का आधे से अधिक भाग अपनी बेटी के खेल पर खर्च करे तो इसे पागलपन ही कहा जाए गा। वह भी उस खेल पर जिसके शटल के ‘चेप’ से सामने वाला खिलाड़ी तो चित्त होता ही है, उसकी कीमत से जेब तक खाली हो जाती है। लेकिन सायना नेहवाल के वैज्ञानिक पिता डॉ। हरवीर सिंह को अपनी बेटी पर विश्वास था और उसने भी अपने पिता के उस विश्वास को बनाए रखकर अपने परिवार का ही नहीं बल्कि देश का भी नाम रोशन किया।
सायना नेहवाल ने इंडोनेशियन सुपर सीरिज बैडमिंटन टूर्नामेंट के फाइनल में तीसरी वरीयता प्राप्त चीनी खिलाड़ी लिन विंग को हराकर इतिहास रच दिया। वह पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी है जिसने इंडोनेशिया आ॓पन जीत कर देश का परचम दुनिया में लहराया है। यही नहीं, वह पहली भारतीय खिलाड़ी हैं जो न सिर्फ आ॓लंपिक के सिंगल क्वार्टर फाइनल तक पहुंची बल्कि वर्ल्ड जूनियर बैडमिंटन चैंपियनशिप पर कब्जा भी जमाया। फिलहाल, विश्व वरीयता सूची में उसका स्थान सातवां है।
हरियाणा के हिसार में 17 मार्च, 1990 को जन्मी सायना की जिंदगी हैदराबाद में बीती। उनकी प्रतिभा को सबसे पहले बैडमिंटन कोच ए न। प्रसाद राव ने 1998 में पहचाना। राव ने सायना के पिता से अपनी बेटी को उनके ट्रेनिंग कैंप में लाने को कहा। बस यहीं से सायना के खेल के सफर की शुरूआत हो गई। उसके वैज्ञानिक पिता डॉ. हरवीर सिंह आठ साल की सायना को हर रोज सुबह छह बजे स्कूटर पर बिठाकर 20 किमी दूर ट्रेनिंग कैंप ले जाते। शाम को भी इतनी दूर छोड़ते और वापस लाते। बीच में सायना को स्कूल भी जाना होता। घर के लोगों का कहना है कि वह इतनी थक जाती थी कि स्कूटर पर ही उसे नींद आने लगती।
द्रोणाचार्य अवार्ड से सम्मानित ए स।ए म। आरिफ ने उन्हें बैडमिंटन की काफी बारीक ट्रेनिंग दी। फिलहाल वह इंडोनेशिया के बैडमिंटन कोच अतीक जहूरी से ट्रेनिंग ले रही हैं। ऐसा भी वक्त था जब उसके खेल में होने वाला खर्च यानी शटल, रैकेट, शू आदि में बारह हजार रूपए से अधिक होता था जो किसी भी मध्यवर्गीय परिवार के आय के आधे हिस्से से भी अधिक था। सायना के ट्रेनिंग में अधिक खर्च को देखते हुए उसके पिता ने अपनी बचत और पीएफ का पैसा निकाल लिया था। उनकी हालत तब तक खस्ताहाल रही जब तक कि 2002 में स्पोटर्स ब्रांड ‘योनेक्स’ ने सायना को किट स्पांसरशिप करने का प्रस्ताव दिया। जैसे ही उसकी रैंकिंग बढ़ी, स्पांसरशिप में जबर्दस्त इजाफा हुआ।
2004 में बीपीसीए ल ने पे-रोल पर इस चमकते सितारे को साइन किया और 2005 में मित्तल चैंपियंस ट्रस्ट ने इसका स्थान ले लिया। सायना ने तब इतिहास रच दिया जब ख्यातिप्राप्त ए शियन सैटेलाइट टूर्नामेंट (इंडियन चेप्टर) को दो बार जीता और ऐसा करने वाले पहली खिलाड़ी बनी। 2006 में सायना दुनिया के नजरों में तब आईं जब फोर स्टार फिलिपींस आ॓पन टूर्नामेंट जीतने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी बनीं। पिता हरवीर सिंह कहते हैं, ‘बीते सात सालों से सायना न कभी किसी पार्टी में गई और न कभी किसी रेस्तरां में। उसने थियेटर में कभी कोई पूरी फिल्म भी नहीं देखी। और फादर्स डे पर उसका ए क मध्यवर्गीय परिवार यदि अपनी आमदनी का आधे से अधिक भाग अपनी बेटी के खेल पर खर्च करे तो इसे पागलपन ही कहा जाए गा। वह भी उस खेल पर जिसके शटल के ‘चेप’ से सामने वाला खिलाड़ी तो चित्त होता ही है, उसकी कीमत से जेब तक खाली हो जाती है। लेकिन सायना नेहवाल के वैज्ञानिक पिता डॉ। हरवीर सिंह को अपनी बेटी पर विश्वास था और उसने भी अपने पिता के उस विश्वास को बनाए रखकर अपने परिवार का ही नहीं बल्कि देश का भी नाम रोशन किया। सायना नेहवाल ने इंडोनेशियन सुपर सीरिज बैडमिंटन टूर्नामेंट के फाइनल में तीसरी वरीयता प्राप्त चीनी खिलाड़ी लिन विंग को हराकर इतिहास रच दिया। वह पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी हंै जिसने इंडोनेशिया आ॓पन जीत कर देश का परचम दुनिया में लहराया है। यही नहीं, वह पहली भारतीय खिलाड़ी हैं जो न सिर्फ आ॓लंपिक के सिंगल क्वार्टर फाइनल तक पहुंची बल्कि वर्ल्ड जूनियर बैडमिंटन चैंपियनशिप पर कब्जा भी जमाया। फिलहाल, विश्व वरीयता सूची में उसका स्थान सातवां है। हरियाणा के हिसार में 17 मार्च, 1990 को जन्मी सायना की जिंदगी हैदराबाद में बीती। उनकी प्रतिभा को सबसे पहले बैडमिंटन कोच ए न। प्रसाद राव ने 1998 में पहचाना। राव ने सायना के पिता से अपनी बेटी को उनके ट्रेनिंग कैंप में लाने को कहा। बस यहीं से सायना के खेल के सफर की शुरूआत हो गई। उसके वैज्ञानिक पिता डॉ। हरवीर सिंह आठ साल की सायना को हर रोज सुबह छह बजे स्कूटर पर बिठाकर 20 किमी दूर ट्रेनिंग कैंप ले जाते। शाम को भी इतनी दूर छोड़ते और वापस लाते। बीच में सायना को स्कूल भी जाना होता। घर के लोगों का कहना है कि वह इतनी थक जाती थी कि स्कूटर पर ही उसे नींद आने लगती। द्रोणाचार्य अवार्ड से सम्मानित ए स।ए म। आरिफ ने उन्हें बैडमिंटन की काफी बारीक ट्रेनिंग दी। फिलहाल वह इंडोनेशिया के बैडमिंटन कोच अतीक जहूरी से ट्रेनिंग ले रही हैं। ए ेसा भी वक्त था जब उसके खेल में होने वाला खर्च यानी शटल, रैकेट, शू आदि में बारह हजार रूपए से अधिक होता था जो किसी भी मध्यवर्गीय परिवार के आय के आधे हिस्से से भी अधिक था। सायना के ट्रेनिंग में अधिक खर्च को देखते हुए उसके पिता ने अपनी बचत और पीए फ का पैसा निकाल लिया था। उनकी हालत तब तक खस्ताहाल रही जब तक कि 2002 में स्पोटर्स ब्रांड ‘योनेक्स’ ने सायना को किट स्पांसरशिप करने का प्रस्ताव दिया। जैसे ही उसकी रैंकिंग बढ़ी, स्पांसरशिप में जबर्दस्त इजाफा हुआ। 2004 में बीपीसीए ल ने पे-रोल पर इस चमकते सितारे को साइन किया और 2005 में मित्तल चैंपियंस ट्रस्ट ने इसका स्थान ले लिया। सायना ने तब इतिहास रच दिया जब ख्यातिप्राप्त ए शियन सैटेलाइट टूर्नामेंट (इंडियन चेप्टर) को दो बार जीता और ऐसा करने वाले पहली खिलाड़ी बनी। 2006 में सायना दुनिया के नजरों में तब आईं जब फोर स्टार फिलिपींस आ॓पन टूर्नामेंट जीतने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी बनीं। पिता हरवीर सिंह कहते हैं, ‘बीते सात सालों से सायना न कभी किसी पार्टी में गई और न कभी किसी रेस्तरां में। उसने थियेटर में कभी कोई पूरी फिल्म भी नहीं देखी। और फादर्स डे पर उसका इंडोनेशियन सुपर सीरीज बैडमिंटन टूर्नामेंट जीतना मेरे लिए सबसे बड़ा तोहफा है।'
(यह आलेख राष्ट्रीय सहारा में छपा है)

7/01/2009

मुद्दा : भुखमरी का बढ़ता दायरा

जिस कदर पूरे विश्व में भूखे लोगों की संख्या बढ़ रही है वह गंभीर मसला है। मंदी, रोजगार में कमी, बढ़ती महंगाई के साथ-साथ विभिन्न देशों की सरकार की अनदेखी और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की अनदेखी ऐसे मामले हैं। जिस कारण वर्ष 2009 में एक अरब लोग भुखमरी की चपेट में हो सकते हैं। जबकि ठीक एक साल पहले 2008 में संयुक्त राष्ट्र के खाघ एवं कृषि संगठन (एफएआ॓) ने अनुमान लगाया था कि बेहतर वैश्विक खाघ आपूर्ति के कारण भुखमरी के शिकार लोगों में कमी आएगी और इनकी संख्या 96।3 करोड़ से घटकर 91।5 करोड़ हो जाएगी। लेकिन हुआ इसके उलट। हालात इस कदर बदतर हुए हैं कि हर छठा आदमी दाने-दाने के लिए मोहताज हा रहा है और इसके इस साल तक 11 फीसद तक बढ़ने के आसार हैं।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, सबसे अधिक भुखमरी के शिकार लोग एशिया महाद्वीप में रहते हैं जहां 62।4 करोड़ लोग इसके शिकार हैं। इसके अलावा सहारा-अफ्रीकी महादेश में 26।5 करोड़, लैटिन अमेरिका के साथ कैरिबाई देशों में 5.3 करोड़ और मध्यपूर्व व उत्तरी अफ्रीका में 5.2 करोड़ लोगों के पास भोजन करने के लिए खाना नहीं है। गंभीर बात यह है कि विकसित देश के लोग भी भूखे रहने के लिए मजबूर हैं और रिपोर्ट के मुताबिक, इन देशों के करीब 1.5 करोड़ लोगों भूखे रह रहे हैं। ऐसा नहीं है कि दुनिया में खाघान्न की कमी के कारण लोग भुखमरी के शिकार हो रहे हैं बल्कि कम वेतन और रोजगारों की कमी के कारण दुनिया को इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है।

वर्तमान में पिछले तीस साल के मुकाबले पूरा विश्व 17 फीसद अधिक कैलोरी से युक्त खाघ पदार्थों का उत्पादन करता है लेकिन इस काल में 70 फीसद आबादी की वृद्धि हुई है। यदि भुखमरी के मामले पर गौर करें तो 1980 की दशक से लेकर 1990 के पूर्वार्द्ध में काफी हद तक भुखमरी पर नियंत्रण रहा लेकिन कालांतर में खास कर पिछले एक दशक में स्थिति भयावह हो गई है। संभावना जताई जा रही है कि इस कारण पूरी दुनिया में शांति और सुरक्षा पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो सकता है। खाघ पदार्थों के दामों में लगातार वृद्धि हो रही है। वर्ष 2008 के अंत तक दुनिया में खाघ पदार्थों के दामों में वर्ष 2006 के मुकाबले 24 फीसद की वृद्धि हुई है। और तो और गरीब लोग अपनी कमाई का 60 फीसद हिस्सा सिर्फ और सिर्फ खाने पर खर्च करते हैं। गौरतलब है कि कुपोषण के शिकार बच्चे साल में 160 दिन बीमार रहते हैं और करीब 50 लाख बच्चे मौत के आगोश में जाने के लिए विवश होते हैं। जहां तक विकासशील देशों की बात है तो वहां हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। भुखमरी के तमाम आंकड़े उस शताब्दी विकास लक्ष्य की धज्जियां उड़ाते हैं जो 2000 में रखे गए थे और जिसमें कहा गया था कि 2015 तक भुखमरी के शिकार लोगों में आधी फीसद की कमी आएगी। माना जा रहा है कि वैश्विक मंदी के दौर में सबसे अधिक शहरी गरीब प्रभावित हुए हैं, क्योंकि वे पूरी तरह से अपनी नौकरी के भरोसे ही परिवार का पेट पालते हैं। दुनिया के तमाम देशों में अधिकतर ऐसे लोग हैं जिनके पास न तो खाघ पदार्थ खरीदने के लिए पैसे हैं, न उपजाने के लिए जमीनें हैं और न ही उनके पास खाघ पदार्थ ही हैं।

सवाल उठता है कि पूरे विश्व के सामने जो समस्या उभर कर सामने आई है उससे निजात पाने का क्या उपाय है। क्या केवल योजनाएं बनाने से काम चल सकता है ? क्या सेमिनार आयोजित करने या रिपोर्ट जारी करने से काम चल सकता है? नहीं बल्कि वर्तमान दौर में जरूरत है दुनिया के तमाम देशों को एक मंच पर आकर भुखमरी और कुपोषण को लेकर गंभीर होने की और इससे मुक्ति पाने के उपाय ढूंढ़ने की क्योंकि जिस तरह यह समस्या अनुमान के विपरीत बढ़ रही है और इस पर गंभीरता नहीं बरती गई तो आने वाले समय में बच्चों, बूढ़ों के साथ-साथ महिलाएं जबर्दस्त तौर से प्रभावित होंगी। साथ ही साथ, समाज की शांति और सुरक्षा पर भी सवाल पैदा होगा क्योंकि खाघान्न का असमान वितरण लोगों के बीच आक्रोश पैदा करने के लिए काफी होगा और ऐसे में लोगों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा कि वे शायद ही इसका अंदाजा लगा पाएं।

(यह आलेख एक जुलाई, २००९ को राष्ट्रीय सहारा में छपा है)