3/10/2008

कुछ पल आंके कुछ पल फांके

मैं अक्सर सोचता हूँ की 'व्यक्ति' की परिभाषा क्या है। 'मैं' क्या चीज होता है। मैं तो अपनी एक भीड़ हूँ। मैं केवल एक लेखक नही। मैं किसी का बेटा, किसी का भाई, किसी का पति और किसी का पिता भी हूँ। किसी का दोस्त और किसी का दुश्मन भी हूँ। मैं वह आदमी भी हूँ जो किसी के लिए काम करता है। मैं वह आदमी भी हूँ जिसके लिए कुछ लोग काम करते हैं... मुझमे और बहुत से लोग भी होंगे।

मैं वह हिपोक्राईट भी हूँ जो अपने बास के बेजान लेतीफे सुनकर सिर्फ़ हँसता ही नही, बल्कि जी लगाकर हँसता है। जो घंटों अपने बोरिंग पडोसियों को बर्दाश्त करता है। जो ख़राब शेरों की तारीफ करता है...जो इसी प्रकार के और भी बहुत से घटिया काम करता है...यह 'मैं' 'व्यक्ति' तो hrgiz नही। यह तो अच्छा- खासा मोहल्ला है।

...लगभग हमेशा लेखक को अपना जी मरना पड़ता है।...इन बातों पर न पाठक सोचता है और न ही आलोचक। पाठक के पास पसंद-नापसंद की तलवार है। वह यह तलवार भान्जता रहता है और आलोचक बड़े-बड़े और भुदे शब्दों के पत्थर लुढ़कता रहता है। रुक कर मेरी खरियत कोई नही पूछता।

कोई लेखक शौक से बुरा नही लिखता। मैं उन लेखकों की बात नही कर रहा हूँ जो केवल बुरा ही लिखते हैं और केवल अपने लिखे को महत्व पूर्ण मानते हैं। मैं साहित्यकारों की बात कर रहा हूँ... उन साहित्यकारों की बात कर रहा हूँ जो अच्छे- बुरे साहित्य में फर्क कर सकते हैं। फ़िर भी सदा अच्छा ही नही लिखते।

यह साहित्यकार बड़ी मुश्किल से कोई घटिया चीज लिखने पर तैयार हो पता है। जानते-बूझते बुरा लिखना बड़ा मुश्किल काम है। पर इसे वही लोग समझ सकते हैं जो लिखने का काम करते हैं। वह लिखना पड़ता है जो लिखना नही चाहता, पर लिखता हूँ क्यूंकि मैं केवल लेखक ही नही हूँ। मैं वह दूसरा आदमी भी हूँ।

...राही मासूम रजा

जारी...

(वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित सिनेमा और संस्कृति नामक पुस्तक से साभार)

3/05/2008

बुल्लिया, की जाणा मैं कौन?

बुल्लिया, की जाणा मैं कौन?
ना मैं मोमिन विच्च मसीता
ना मैं विच्च कुफ़र दियां रीता,
ना मैं पाक आं विच पलीता,
ना मैं मूसा ना फ़िर औन।

ना मैं विच्च पलीती पाकी,
ना विच्च शादी, ना गमना की,
ना मैं आबी ना मैं खाकी,
ना मैं आतिश ना मैं पौन।

ना मैं भेत मजब दा पाया,
ना मैं आदम-हव्वा जाया,
ना मैं अपना नाम धराया,
ना विच बैटन ना विच भौं।

अव्वल आखर आप नू जाणा,
ना कोई दूजा आप पछाणा ,
मैथों वध ना कोई सिआणा,
बुल्ल्हिया ओह खड़ा है कौन ?


इन पंक्तियों का अर्थ कुछ यू है...


साधना की एक ऐसी अवस्था आती है जिसे संत बेखुदी कह लेते हैं, जिसमे उसकी अपना आपा अपनी ही पहचान से परे हो जाता है। इसीलिए बुल्लेशाह कहते हैं की मैं क्या जानू की मैं कौन हूँ?
मैं मोमिन नही की मस्जिद में मिल सकूं, न मैं पलीत (अपवित्र) लोगों के बीच पवित्र व्यक्ति हूँ और न ही पवित्र लोगों के बीच अपवित्र हूँ। मैं न मूसा हूँ और फ़िर औन भी नही हूँ।
इस प्रकार मेरी अवस्था कुछ अजीब है, ना मैं पवित्र लोगों के बीच, न अपवित्र लोगों के बीच हूँ और मेरी मनोदशा न प्रसन्नता की है, न उदासी की। मैं जल अथवा स्थल में रहनेवाला भी नही हूँ, न मैं आग हूँ और पवन भी नही।
मजहब का भेद भी नही पा सका। मैं ऐडम और हव्वा के संतान भी नही हूँ। इसलिए मैंने अपना कोई नाम भी नही रखा है। ना मैं जड़ हूँ और जगम भी नही हूँ।
कुल मिलाकर कहूँ, मैं किसी को नही जानता, मैं बस अपने-आपको ही जानता हूँ, अपने से भिन्न किसी दूसरे को मैं नही पहचानता। बेखुदी अपना लेने के बाद मुझसे आगे सयाना और कौन होगा? बुल्लेशाह कहते हैं की मैं यह भी नही जानता की भला वह खड़ा कौन है?


जब भी मैं ख़ुद को अकेला पता हूँ, पता नही क्यों बुल्लेशाह की ये पंक्तियाँ काफी प्रभावित करती हैं।... विनीत