10/30/2010

जज्बा तो निजात आसान

आस्ट्रेलियाई सिंगर केली मिनोग को आप जानते ही होंगे। उनके गानों के दीवाने आप नहीं, तो आपके दोस्त जरूर होंगे। वह चहकती, चुलबुलाती सबको खुश कर देती है। उसके मुस्कराते चेहरे के पीछे का दर्द हर कोई नहीं जानता। 2005 से पहले 42 वर्षीय मिनोग को ब्रेस्ट कैसर था और उन्होंने इसका डॉयग्नोसिस करवाया। सर्जरी के साथ-साथ कीमोथेरेपी कराने के बाद एक साल के भीतर उन्होंने इंडस्ट्री में वापसी की। इसके बाद वह 21 देशों के टूर पर गईं और 11वां एलबम निकाला। उन्हें ’मोस्ट इंस्पायरेशनल‘ ब्रेस्ट कैसर सेलिब्रिटी का खिताब दिया गया।
सबकुछ पैसा या इलाज ही नहीं होता, सकारात्मक सोच भी बड़ी चीज होती है । यदि आपने बीमारी को छोटा आंका और तय किया कि यह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती और इसे ठीक करना है, तो इससे थोड़ी-बहुत परेशानी तो होगी, लेकिन कम से कम जान तो नहीं जा सकती
रिपोर्ट बताती है कि 2007 में भारत में जहां ब्रेस्ट कैसर से पीड़ित महिलाओं की संख्या 3.5 करोड़ थी, जो 2012 तक 6.4 करोड़ हो जाएगी। भारत में हर 22 महिलाओं में से एक को पूरी जिंदगी इसके होने का डर बना रहत है। हालांकि अमेरिका और आस्ट्रेलिया की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है। अमेरिका में हर आठ महिलाओं में से एक को इसका लाइफटाइम रिस्क रहता है, वहीं आस्ट्रेलिया में हर 11 महिलाओं में एक को यह डर सताता है। ब्रेस्ट कैसर होने का खतरा आनुवंशिक होता है।
वैसी भी उन्हीं महिलाओं को यह होने का खतरा होता है, जिनके पीरिएड्स 12 साल की उम्र से पहले या फिर 55 साल की उम्र के बाद जिन्हें मेनोपॉज होता है। जो महिलाएं कभी प्रेगनेंट नहीं होतीं, जो 30 साल के बाद पहली बार प्रेगनेंट होती है, ऐसी महिलाएं भी इसकी शिकार हो सकती है। हालांकि जो महिलाएं 20 साल की उम्र से पहले मां बन जाती है या जो कई बार गर्भवती होती है, उन्हें भी यह कैसर होने की आशंका रहती है लेकिन रिस्क काफी कम होता है। ब्रेस्ट कैसर से अधिक मौतें 50 साल की अवस्था या इसके बाद होती है। हालांकि पुरुषों में भी यह बीमारी होने लगी है लेकिन महज एक फीसद लोग ही इसके शिकार है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस बीमारी के बारे में लोगों को जागरूक और बचाव करने व रहन-सहन ठीक करने से इस पर काबू पाया जा सकता है। नब्बे के दशक में इससे लोगों को जागरूक करने के लिए ’पिंक रीबन‘ सिंबल चुना गया था। 1996 में ’मेन गेट ब्रेस्ट कैसर टू‘ कंपेन के तहत नैसी निक ने पिंक और ब्लू रिबन को डिजाइन किया था।
बहरहाल, जागरूकता अहम मुद्दा है लेकिन केली मिनॉग से महिलाओं को सीख लेने की जरूरत है। केली मिनोग और उनका कारनामा महिलाओं को प्रेरणा देने का काम करता है। सबकुछ पैसा या इलाज ही नहीं होता, बल्कि सबसे जरूरी है- मन का सुख यानी सकारात्मक सोच। यदि आपने बीमारी को छोटा समझ लिया कि यह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती, इसे ठीक करना है तो यह थोड़ा-बहुत परेशान तो करेगी लेकिन कम से कम आपकी जान तो नहीं जाएगी। शोधकर्ताओं का कहना है कि ज्यादातर बीमारियां तो बेहतर डॉक्टर के पास जाने के साथ ही ठीक होने लगती है। ’मु न्नाभाई एमबीबीएस‘ फिल्म को याद करें। माहौल भी काफी अहम होता है। खुशनुमा माहौल से काफी फायदा होता है। केली मिनॉग का जज्बा यह विश्वास दिलाता है कि यदि डर पर विजय पा ली जाए और कुछ कर दिखाने का जज्बा हो, तो ब््रोस्ट कैसर जैसी बीमारी का इलाज मुमकिन है।

10/23/2010

अंग्रेजीदां ने हिन्दी कबूली

वाल स्ट्रीट जर्नल इंडिया द्वारा लांच ब्लॉ ग इंडिया रियल टाइम हिन्दी पर स्पष्ट लिखा हुआ है, जिन महत्वपूर्ण प्रसंगों पर विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र चर्चा कर रहा है, जिनका अभिन्न हिस्सा आप भी है, उन्हीं विषयों पर वाल स्ट्रीट जर्नल और डाव जोंस के पत्रकारों द्वारा लिखी गई व्याख्याएं आप यहां रोजाना पढ़ सकते है

कुछ साल पहले जब हिन्दी ब्लॉगिंग की शुरुआत हुई थी तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि इंटरनेट की दुनिया में हिन्दी इस कदर छा जाएगी। यही कारण है कि जब आप गूगल पर अंग्रेजी में ’हिन्दी ब्लॉग‘ सर्च करते है तो 32 करोड़ रिजल्ट आपके सामने होता है। वही जब हिंदी में ’हिन्दी ब्लॉग‘ सर्च करते है तो यह आं कड़ा पांच लाख पार जाता है। पिछले दिनों जब वाल स्ट्रीट जर्नल इंडिया ने हिन्दी ब्लॉग लांच किया तो यह सोचना लाजिमी है कि आखिर हिन्दी किस तरह अंग्रेजी दुनिया में अपनी पैठ बनाने में सफल रही है। हालांकि वाल स्ट्रीट जर्नल का कहना है कि यह महज एक प्रयोग है और इसके जरिए इंडिक लैग्वेज कंजम्पशन पैटर्न को समझने की कोशिश की जा रही है। साथ ही क्वालिटी लेखकों और कंटे ट को सामने लाने की ओर ध्यान दिया जा रहा है। यह बात और है कि भारत की जिन मीडिया का काम हिन्दी में हो रहा है वह इंटरनेट की दुनिया में जरूर अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुके है या करा रहे है।

हिन्दी ब्लॉगर्स की ओर नजर डालें तो आलोक कुमार का ’9211‘ को हिन्दी का पहला ब्लॉग माना जाता है। 21 अप्रैल, 2003 में वह पहली बार लिखते है, ’चलिए अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें। वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी? पता नहीं।‘ उस दौर में उनकी दुविधा जायज थी लेकिन कुछ ही समय में हिन्दी ने ब्लॉगिंग की दुनिया में जो तरक्की की है, वह काबिलेतारीफ है। शुरुआती दौर में तकनीकी तौर पर हिन्दी पिछड़ता नजर आया। 2006 तक हिन्दी ब्लॉग की संख्या महज सैकड़े में थी जो अब 15 हजार के पार हो गई है। छह लाख से भी अधिक प्रविष्टियां यहां मौजूद है तो दो लाख से भी अधिक सांकेतिक शब्दों के जरिए ब्लॉग की दुनिया में घूमा जा सकता है।

हिन्दी ब्लॉगों को लोकप्रिय बनाने में एग्रीगेटर ने काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 2005-2006 में जीतू ने ’अक्षरग्राम‘ शुरू किया और फिर ’नारद‘ की शुरुआत हुई। 2007 में ’ब्लॉगवाणी‘ और ’चिट्ठाजगत‘ अस्तित्व में आया। कालांतर में सब ठंडे पड़े है लेकिन ’चिट्ठाजगत‘ आज भी मौजूद है। हालांकि इसके बाद और भी कई एग्रीगेटर मैदान में आए है लेकिन लोकप्रियता के मामले में कुछ खास नहीं कर पाए है। वर्तमान दौर में हिन्दी ब्लॉगर्स कई विषयों पर खूब लिख रहे है। चिट्ठाजगत ने तो बकायदा तकनीक, कला, समाज, इकाई, खेल, मस्ती और सेहत जैसे कॉलम बनाकर संबंधित ब्लॉग और पोस्टों को पाठकों के सामने परोस रहे है।

ताज्जुब है कि अंग्रेजीदां लोग अब भारत और भारतीय भाषाओं को इतनी गंभीरता से ले रहे है। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वाल स्ट्रीट जर्नल इंडिया द्वारा लांच ब्लॉग इंडिया रियल टाइम हिन्दी पर स्पष्ट तौर से लिखा हुआ है, ’जिन महत्वपूर्ण प्रसंगों पर विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र चर्चा कर रहा है, जिसका एक अभिन्न हिस्सा आप भी है, उन्हीं विषय पर वाल स्ट्रीट जर्नल और डाव जोंस के पत्रकारों द्वारा लिखे गए व्याख्याएं आप यहां रोजाना पढ़ सकते है।‘ बीबीसी ने काफी पहले ही भारतीय पाठकों की नब्ज को देखते हुए ब्लॉग या फिर हिन्दी में वेबसाइट लांच किया था। हालांकि चीन और जर्मन रेडियो काफी अरसा पहले से ही खबरों के साथ-साथ तमाम बातें अपनी हिन्दी वेबसाइट के जरिए हिन्दी पाठकों के सामने परोस रहे है।

10/22/2010

जिम्मेदार कौन?

आज भी बेटे और बेटियों में भेद किया जाता है। बेटे बाहर जाकर पढ़ेंगे लेकिन बेटियां घर पर रहकर बर्तन मांज-मांजकर रट्टा लगाने के लिए मजबूर है। शादी हुई तो तुरंत मां-बाप, सास-ससुर, ननद-भौजाई को संबंधों में ‘प्रमोशन’ पाने की ललक होने लगती है यह जाने बिना कि ‘लड़की’ शारीरिक और मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार है भी या नहीं। कितनी आमदनी है, कितना खर्च होता है, भविष्य के क्या सपने है, आदि-आदि बात पर कैसे कोई गौर करेगा, अहम सवाल है?

क्या आपने कभी सोचा है कि आपके काम पर न जाने और घर में रहने से घरेलू बजट पर क्या प्रभाव पड़ता है। क्या एक बार भी लगा कि आपने नौकरी छोड़ दी है या नौकरी नहीं कर रही है तो घर का कर्ज कैसे निबटेगा। घर खरीद लिया है, बच्चों की पढ़ाई है, फिर सामाजिकता है, खान-पान है तो जाहिर सी बात है कि खर्च तो होता ही है। हालांकि इस मामले को सोचने की जहमत शायद ही कोई भारतीय परिवेश में उठाता हो। यहां महिलाओं को तो बंद चारदीवारी में रहना, बच्चों को पालना, सास-ससुर की सेवा करना आदि से ही फुर्सत नहीं मिलती है। पुरुषप्रधान समाज में इस हिसाब-किताब के चक्कर में महिलाएं नहीं पड़ती। विश्वास न हो तो अपने घर क्या आस-पड़ोसी के यहां जाकर हालात पर नजर डाल लीजिए।
पिछले साल मंदी के दौर में बेरोजगार हो चुकीं करीब पचास हजार महिलाएं ब्रिटेन में नौकरी करने के लिए मजबूर हुईं। इनके घर में रहने से जहां कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा था वहीं घरेलू कामकाज में काफी खर्च भी हो रहा था। ब्रिटेन के ऑफिस फॉर नेशनल स्टैटिस्टिक्स के मुताबिक, पिछले तीन महीने में बेरोजगारी 25 लाख से घटकर 20 हजार पहुंच चुकी है। मंदी के दौर में करीब 25 लाख लोग बेरोजगार हुए और माना जा रहा था कि 2012 तक इनकी संख्या करीब 29 लाख हो जाएगी। महिलाओं के घर में रहने से परिवार पर काफी कर्ज हो गया और आर्थिक तौर से काफी परेशान रहने लगीं। कई घर कर्ज में डूब गए क्योंकि उन्होंने जो कर्ज लेकर घर खरीदा था उसे वे चुका नहीं पा रहे थे। हालांकि महिलाओं के घर में रहने से बच्चों को काफी फायदा हुआ और उनकी सही देखभाल और परवरिश होने लगी।
सर्वे के मुताबिक, काफी महिलाएं अपने काम पर लौटने के लिए विवश हुई है। Uswitch.com ने अपने सर्वे में यह सवाल किया था कि उनके बच्चे तीन साल से भी कम उम्र के है, फिर उन्हें काम पर लौटने की मजबूरी क्या थी। करीब 50 फीसद महिलाओं ने माना कि आर्थिक संकट खासकर कर्ज से वह परेशान थीं और उसे लौटना था। इस कारण वे काम पर लौटने के लिए विवश हुईं। इसके अलावा वे पार्ट टाइम जॉब करने के लिए मजबूर हुईं। माना जा रहा है कि करीब 80 लाख महिलाओं के साथ-साथ बच्चे भी पार्टटाइम जॉब करने के लिए मजबूर हुए है। पिछले दो सालों में ब्रिटेन में जहां करीब सवा सात लाख फुलटाइम नौकरी की कमी आई वहीं साढ़े चार हजार पार्टटाइम नौकरी में इजाफा हुआ है।
परिवार की गाड़ी पति और पत्‍नी रूपी दो पहियों के समन्वय से चलती है। आजादी के 62 साल बाद भी देश की स्थिति बदली नहीं है। शहर या फिर मेट्रो सिटी में तो हालात कुछ बदले है लेकिन गांव या छोटे शहरों के परिवारों को देख लें, आज भी स्थिति जस की तस है। परिवार में आज भी बेटे और बेटियों में भेद किया जाता है। बेटे बाहर जाकर पढ़ेंगे लेकिन बेटियां घर पर रहकर बर्तन मांज-मांजकर रट्टा लगाने के लिए मजबूर है। जिंदगी जीने का ककहरा सीखी नहीं, ग्रेजुएट होते-होते शादी की चिंता माता-पिता को सताने लगती है। शादी हुई तो तुरंत मां-बाप, सास-ससुर, ननद-भौजाई को संबंधों में ’प्रमोशन‘ पाने की ललक होने लगती है यह जाने बिना कि ’लड़की‘ शारीरिक और मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार है भी या नहीं। ऐसे में बाहरी दुनिया का दवाब कोई भी लड़की कितना झेल पाएगी, सवालिया निशान उठना लाजिमी है। फिर घर के मामले में कि कितनी आमदनी है, कितना खर्च होता है, भविष्य के क्या सपने है, आदि आदि बात पर कैसे कोई गौर करेगा, अहम सवाल है।

10/20/2010

लहर ये डोले कोयल बोले.. अनजान

बनारस के लालजी पांडेय यानी गीतकार अनजान बचपन से ही शेरो-शायरी के शौकीन थे। हिन्दी फिल्मों में उनका योगदान अतुलनीय है

'डान‘ का ’खइके पान बनारस वाला.,‘ या फिर ’मुकद्दर का सकिंदर‘ का ’रोते हुए आते है सब..‘ आज भी लोग इन गानों को सुनकर झूम उठते है। इन गीतों को लिखने वाले का नाम है अनजान! यह कोई अनजान नहीं बल्कि अनजान ही है जिनका असली नाम था लालजी पांडेय। 28 अक्टूबर 1930 को बनारस में जन्मे अनजान का बचपन से ही शेरो-शायरी के प्रति गहरा लगाव था। अपने इसी शौक को पूरा करने के लिए वह बनारस में आयोजित लगभग सभी कवि सम्मेलनों और मुशायरों में हिस्सा लिया करते थे। हालांकिमुशायरांे में वह उर्दू का इस्तेमाल कम ही किया करते थे। जहां हिन्दी फिल्मों में उर्दू का इस्तेमाल पैशन था, वहीं अनजान अपने गीतों में हिन्दी पर ज्यादा जोर दिया करते थे।

गीतकार के रूप में अनजान ने करियर की शुरुआत 1953 में अभिनेता प्रेमनाथ की फिल्म ’गोलकुंडा का कैदी‘ से की। इस फिल्म के लिए सबसे पहले उन्होंने ’लहर ये डोले कोयल बोले ..‘ और ’शहीदों अमर है तुम्हारी कहानी..‘ गीत लिखे लेकिन इस फिल्म से वह कुछ खास पहचान नहीं बना पाए। उनका संघर्ष जारी रहा। इस बीच अनजान ने कई छोटे बजट की फिल्में भी की जिनसे उन्हें कुछ खास फायदा नहीं हुआ। अचानक उनकी मुलाकात जी.एस. कोहली से हुई जिनके संगीत निर्देशन में उन्होंने फिल्म ’लंबे हाथ‘ के लिए ’मत पूछ मेरा है मेरा कौन वतन..‘ गीत लिखा। इस गीत के जरिये वह काफी हद तक अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए।

लगभग दस वर्ष तक मुंबई में संघर्ष करने के बाद 1963 में पंडित रविशंकर के संगीत से सजी प्रेमचंद के उपन्यास गोदान पर आधारित फिल्म ’गोदान‘ में ’चली आज गोरी पिया की नगरिया..‘ गीत की सफलता के बाद अनजान ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। अनजान को इसके बाद कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिलने शुरू हो गए। इनमें ’बाहरे फिर भी आएंगी‘, ’बंधन‘, ’कब क्यों और कहां‘, ’उमंग‘, ’रिवाज‘, ’एक नारी एक ब्राह्मचारी‘ और ’हंगामा‘ जैसी फिल्मों के गीत लिखे। इस दौर में वह सफलता की नई बुलंदियों को छू रहे थे और एक से बढ़कर एक गीत लिखे।

1976 में उन्होंने कल्याणजी-आनंदजी के संगीत में ’दो अनजाने‘ का गीत ’लुक छिप लुक छिप जाओ ना..‘ लिखा, जो अमिताभ बच्चन के करियर के अहम फिल्मों में से एक है। 80 के दशक में उन्होंने मिथुन चक्रवर्ती की फिल्मों के लिए भी गाने लिखे। आर.डी. बर्मन के लिए उन्होंने ’ये फासले ये दूरियां..‘, ’यशोदा का नंदलाला..‘ जैसी कालजयी गीत लिखे। लेकिन 90 के दशक में वे अस्वस्थ रहने लगे, बावजूद इसके उन्होंने ’जिंदगी एक जुआ‘, ’दलाल‘, ’घायल‘ के अलावा ’आज का अजरुन‘ के लिए ’गोरी है कलाइयां..‘ लिखा। उन्होंने अपनी जिंदगी का आखिरी गाना ’शोला और शबनम‘ फिल्म के लिए लिखा। ऐसा नहीं कि उन्होंने सिर्फ फिल्मों के लिए ही गाने लिखे।

60 के दशक में उन्होंने गैर फिल्मी गीत भी लिखे जिसे मोहम्मद रफी, मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर ने गाये। अनजान 20 वष्रांे तक हिन्दी फिल्मों की दुनिया में छाए रहे। उनके गानों में भोजपुरी के अलावा बनारस की खुशबू रहती थी। 13 सितम्बर, 1997 को वह दुनिया से अलविदा कह गए लेकिन इसके कुछ ही महीने पहले उनकी कविता की किताब ’गंगा तट का बंजारा‘ का लोकार्पण अमिताभ बच्चन ने किया था। विनीत उत्पल ’डॉ 60 के दशक में उन्होंने गैर फिल्मी गीत भी लिखे जिन्हें मोहम्मद रफी, मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर ने गाया। अनजान 20 वष्रांे तक हिन्दी फिल्मों की दुनिया में छाए रहे। उनके गानों में भोजपुरी के अलावा बनारस की खुशबू थी.


10/19/2010

टूटे या खुले झूले पर


सब कुछ खुला हो तो आप कुछ नहीं कर सकते
यह कम्प्यूटर की कोई फाइल हो सकती है
खुला व्यवहार या बातचीत का दायरा भी हो सकता है
नजर चुराने का मामला भी इसमें शामिल है
ऐसा मेरे सहयोगी का कहना है और वह इस मामले के विशेषज्ञ हो सकते हैं

जरूरी नहीं कि वह खुले दिल के ही हों
जरूरी नहीं कि वह अपनी पत्नी, बच्चे या बॉस से खुले हों
जरूरी नहीं कि मॉडर्न लड़कियों को लेकर उनकी सोच खुली हो
जरूरी यह भी नहीं कि उनका लिखा खुला न होकर घिचपिच ही हो

रेडियो को ऑन करने के बदले खोल दें तो कैसे बजेगा
दरवाजा खुला हो तो कैसे मन का राक्षस जीवित हो सकेगा
आखिर आदमीयत मारने के लिए कितना सहना पड़ता है
आत्मसम्मान, नैतिकता, शिष्टाचार से मुंह फेरना पड़ता है

आप खुले तौर पर कुछ भी नहीं कर सकते हमारे सहयोगी के साथ
दिन के उजाले के चोर की तरह हैं वो
जो नजरें चुराते फिरते हैं
क्योंकि वे करते हैं कामचोरी-सीनाजोरी
और चुगलखोरी तो धर्म है ही उनका
फिर सब कुछ खुला-खुला हो तो कैसे हो सकती है बेइमानी

खुल्लम खुला कैसे कर सकता है कोई किसी लड़की की छेड़खानी
पिटाई होने का डर जो है, बदनाम होने का भी
खुले तौर पर कैसे लड़की के चरित्र पर सवालिया निशान उठाया जा सकता है
जब सड़क के किनारे या फिर मेट्रो स्टेशन पर हो बैठने के लिए काफी जगह
आखिर थोड़ी-सी लज्जा भी छुपी है अंदर अभी तक

अपनी बहन-बेटी के चरित्रता की नहीं कर सकते बात
लेकिन ऑफिस में काम करने वाली महिला सहयोगी
या सामने वाली खिड़की में रहने वाली कोमलांगी को लेकर
खुले तौर पर नहीं बोल सकते, इसलिए क्यों न कर लें कानाफुसी

टूटे या खुले झूले पर
मन नहीं भर सकता खुलेआम हिंडोला
न ही जमाने के सबसे बड़े और खुले तकिए पर
मैं लिख सकता था अपना नाम
सेक्सुअल जमाने में
खुला हो सामने वाला तो घबराना जरूरी था
नहीं तो हम हो जाते बदनाम
आखिर हमाम में नंगे जमाने में
एक हम थे जो न तो नंगा पैदा हुए और न ही नंगे मरेंगे
यही भ्रम था जमाने से
आखिर खुला दिमाग जो न था।

10/18/2010

ट्यूलिप और सोनिया

ट्यूलिप और सोनिया

ट्यूलिप नहीं है वह फूल
जिसे सोनिया ने सींचा है, संवारा है
कैमरे की आंखों से
वह तो कोमल भी नहीं है और फूलों की तरह
उसे मालूम भी नहीं कि
उसके नाम के साथ है बदनुमा दाग

ब्लैक ट्यूलिप नाम दे दिया गया उस फिल्म को
जिसकी पृष्ठभूमि है अफगानिस्तान
जिसमें दर्शाया गया है तालिबान के आतंक को
कत्लेआम और अपहरण की
मुकम्मल तस्वीर है जहां

शूटिंग शुरू होने से पहले ही
हीरोइन जरीफा के काट दिए गए थे पैर
गुमनामी जिंदगी जीने के लिए
मजबूर हो गई थी वह
उसकी और उसके रिश्तेदारों की हत्या
करने की दी गई थी धमकी

खौफ के डर से भाग गया था
कैमरामैन कीम स्मिथ
ड्रेस डिजाइनर, डायरेक्टर
सभी हो गए थे लापता
जब फोड़े गए थे बम
और चली थीं गोलियां
क्रेडिट कार्ड से हो रहा था
सारा का सारा काम

पर्दे पर उतारी है सोनिया ने
‘कवियों का कोना’ नामक रेस्तरां की कहानी
बात करते थे संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी
कहानी और कविता का होता था पाठ
चाय और सुरा की चुस्कियां लेकर वहां

घर तक रख दिया था गिरवी
सभ्यता-संस्कृति के दुश्मनों से लेती रही थी लोहा
आखिर आतंक से जनानी जंग का यह कारनामा
एरियाना सिनेमाघर के बड़े पर्दे पर जब सबके सामने आया
तब तालियां ही तालियां बजती रहीं
लेकिन थी वहां आंसू की ए क बूंद जिसे किसी ने नहीं देखा।

(सोनिया नासरी कोले के लिए जिन्होंने ‘ब्लैक ट्यूलिप’ नामक फिल्म बनाई। इस फिल्म को आस्कर अवार्ड के लिए अफगानिस्तान सरकार की आ॓र से विदेशी फिल्म की कैटोगरी में नामांकित कर भेजा गया)