9/27/2008

धन्यवाद अफलातून भाई, मुस्लिम नौजवान जरूर ध्यान देंगे

आज अफलातून ने ऑरकुट पर एक संदेश भेजा है। आतंकवाद को लेकर काफी गंभीर बातें कही गयी है। ऐसे परिवेश में किसे क्या करना चाहिए और हमारा कदम क्या हो, इस पर सटीक विश्लेषण किया गया है। मुसलिम नौजवानों-’भागो मत , दुनिया को बदलो !’

लेख की कुछ पंक्तियाँ यहाँ है :-

आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई राजनैतिक नहीं होनी चाहिए । मुख्यधारा की राजनीति की कमियों और कुछ नेताओं के अललटप्पू बयानों के कारण उनके दिमाग में यह ग़लतफ़हमी है । ‘दिल्ली के जामिया नगर में हुई पुलिस मुठभेड़ फर्जी थी ‘ कई मुस्लिम समूह और मानवाधिकार संगठन यह मान रहे हैं । इस सन्दर्भ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा न्यायमूर्ति रामभूषण मल्होत्रा द्वारा दिया गया एक फैसला महत्वपूर्ण है। रामभूषणजी नहीं चाहते कि उनके नाम के आगे न्यायमूर्ति लगाया जाए । चूँकि यह उनके द्वारा दिए गए फैसले की बात है इसलिए ‘न्यायमूर्ति’ लगाना उचित है। अपने फैसले हिन्दी में देने के लिए भी उन्हें याद किया जाएगा। उक्त फैसले में कहा गया था कि जब भी पुलिस ‘मुठभेड़’ का दावा करती है उन मामलों में (१) मृतकों के परिवार को पुलिस द्वारा सूचना दी जाएगी तथा (२) ऐसे सभी मामलों की मजिस्टरी जाँच होगी । यदि यह घटना जामिया नगर की जगह नोएडा में होती तो इन दोनों बातों को खुद-ब-खुद लागू करना होता।घटना की जाँच की माँग एक अत्यन्त साधारण माँग है तथा पूरी पारदर्शिता के साथ इसे पूरा किया जाना चाहिए ।
इन मानवाधिकार संगठनों और मुस्लिम समूहों से भी हम रू-ब-रू होना चाहते हैं । इतनी गम्भीर परिस्थिति में बस इतना संकुचित रह कर काम नहीं चलेगा । आतंकी घटनाओ और उसके तार देश के भीतर से जुड़े़ होने की बात पहली बार खुल के हो रही है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा भारत के तमाम अमनपसंद मुसलमानों को भुगतना पड़ रहा है । इन घटनाओं के बाद संकीर्ण सोच वाले साम्प्रदायिक समूह हर मुसलमान को गद्दार बताने का अभियान शुरु कर चुके हैं, आगामी लोकसभा निर्वाचन में वोटों के ध्रुवीकरण की गलतफहमी भी वे पाले हुए हैं । आतंकवाद से मुकाबले की नाम पर क्लोज़ सर्किट टेवि जैसे करोड़ों के उपकरण खरीदें जायेंगे और इज़राइली गुप्त पुलिस ‘मसाद’ से तालीम दिलवाई जाएगी । कैनाडा और अमेरिका मे रहने वाले अनिवासी भारतीयों से पूछिए कि पैसे कि ताकत पर कैसे यहूदी लॉबी नीति निर्धारण में हस्तक्षेप करती है ? इन सब से गम्भीर और नुकसानदेह बात यह है कि मेधावी तरुण यदि ‘आतंक’ में ग्लैमर देखने लगें तो उन्हें उस दिशा से रोकने और अन्याय की तमाम घटनाओं के विरुद्ध राजनैतिक संघर्ष से जोड़ने का काम कौन करेगा ? यह काम मुख्यधारा की राजनीति से जुड़ा कोई खेमा शायद नहीं करेगा।
एक मुस्लिम महिला पत्रकार और कवयित्री ने अपने चिट्ठे पर लिखा , ‘कि दिल्ली का बम काण्ड करने वाले जरूर हिन्दू रहे होंगे’। अत्यन्त सिधाई से उन्होंने यह बात कह दी। मैंने यह देखा है कि शुद्ध असुरक्षा की भावना से ऐसी बातें दिमाग में आती हैं ।‘काम गलत है, इसलिए जरूर हमारे समूह का व्यक्ति न रहा होगा’ - यह मन में आता होगा । राष्ट्रीय एकता परिषद , सर्वोच्च न्यायालय और संसद के सामने बाबरी मस्जिद की सुरक्षा की कसमे खाने वाली जमात ने जब उस कसम को पैरों तले मसलने में अपना राष्ट्रवाद दिखाया तब किसी हिन्दू के दिमाग में क्या यह बात आई होगी कि जरूर यह काम हमारे समूह से अलग लोगों ने किया होगा ? जिन्हें लगता है कि "वह काम सही था और इसीलिए हमारे समूह ने किया" - उन राष्ट्रतोड़क राष्ट्रवादियों से हमे कुछ नहीं कहना , उनके खतरनाक मंसूबों के खिलाफ़ लड़ना जरूर है ।
मैंने आतिफ़ का ऑर्कुट का पन्ना पढ़ा है जिसमें वह फक्र के साथ एक फेहरिस्त देता है कि किन शक्सियतों के आजमगढ़ से वह ताल्लुक रख़ता है - ……. राहुल सांकृत्यायन , कैफ़ी आज़मी । चार लोगों को जिन्दा जमीन में गाड़ देने वाले भाजपा नेता (पहले सपा और बसपा में रहा है) रमाकान्त यादव या भारत की सियासत के सबसे घृणित दलाल अमर सिंह का नाम नहीं लिखता ! ऐसा कोई तरुण घृणित , अक्षम्य आतंकी कार्रवाई से जुड़ता है , उन कार्रवाइयों की तस्वीरें उतारता है तो निश्चित तौर पर इसकी जिम्मेदारी मैं खुद पर भी लेता हूँ । अन्याय के खिलाफ़ लड़ने का तरीका आतंकवाद नहीं है । आजमगढ़ के शंकर तिराहे के आगे , मऊ वाली सड़क पर प्रसिद्ध पहलवान स्व. सुखदेव यादव के भान्जे के मकान में समाजवादी जनपरिषद के दफ़्तर के उद्घाटन के मौके पर आजमगढ़ के सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और फोटोग्राफर दता ने राहुलजी का लिखा गीत दहाड़ कर गाया था - ‘ भागो मत ,दुनिया को बदलो ! मत भागो , दुनिया को बदलो ‘ । आजमगढ़ के तरुणों से यही गुजारिश है ।

कौन देगा बाटला शूट आउट का जवाब

जामिया / बाटला शूट आउट मामले में जिस तरह सियासी जंग शुरू हो चुकी है, यह जल्द थमने वाला नही है। अब जिस तरह के सवाल शुरू हो गए है, इसका जवाब देना किसी के वश की बात नही है। मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग सहित तमाम संस्थाएं सड़क पर है। लेकिन उठे सवालों का जवाब कौन देगा। दिल्ली पुलिस, दिल्ली सरकार या केन्द्र सरकार या फ़िर मीडिया। इस हमाम में सभी नगें हैं. आख़िर कौन से सवाल हैं जो आने वाले समय में सिरदर्द होंगे। जरा गौर फरमाएं।

  • क्या 19 सितंबर, 2008 की मुठभेड़ के सिलसिले में किसी तरह की जाँच का काम शुरू किया गया है या इसकी प्राथमिकी दर्ज की गई है।
  • जिस मकान में मुठभेड़ हुई उससे बाहर निकलने का केवल एक रास्ता है। पुलिस की टीम वहाँ मौजूद थी, फिर भी दो लोग भागने में कैसे सफल हो गए.
  • मुठभेड़ के मृतकों और गिरफ़्तार संदिग्धों की पुलिस ने धमाके के चश्मदीदों के सामने पहचान परेड क्यों नहीं करवाई है। मृतकों को बिना पहचान परेड के क्यों दफ़्न कर दिया गया. मीडिया और स्थानीय लोगों को भी न तो मृतकों के चेहरे दिखाए और न ही मुठभेड़ की जगह पर जाने दिया गया.
  • जिन मामलों में पुलिस के पास कोई जानकारी नहीं थी, उसमें अलग अलग राज्यों की पुलिस को कई अहम मास्टरमाइंड कैसे मिलने लग गए। हर गिरफ़्तारी से पहले तक जिनके बारे में कोई जानकारी पुलिस के पास नहीं होती, उन्हें गिरफ़्तार करने के कुछ ही मिनटों में मास्टर माइंड कैसे कह दिया जाता है.
  • अगर पुलिस को मालूम था कि उस घर में चरमपंथी हैं तो पुलिस टीम का नेतृत्व कर रहे एमसी शर्मा बिना बुलैटप्रूफ़ जैकेट के वहाँ क्यों गए।
  • अगर पुलिस को पता नहीं था कि वहाँ चरमपंथी हैं तो मुठभेड़ के तुरंत बाद बिना पूछताछ के किस आधार पर पुलिस ने उस घर में रह रहे लोगों को आतंकवादी क़रार दिया।
  • अगर जामिया नगर के उस घर (बाटला हाउस, एल-18) में रहनेवाले लोग चरमपंथी थे तो उन्होंने 21 अगस्त, 2008 को अहमदाबाद धमाकों के बाद और दिल्ली धमाकों से पहले अपने बारे में सही निजी जानकारी पुलिस को क्यों उपलब्ध कराई।
  • पुलिस ने मृतक संदिग्धों और पुलिस इंस्पेक्टर की पोस्टमार्टम रिपोर्ट की जानकारी अभी तक उनके घरवालों को क्यों नहीं दी हैं और क्यों उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया है।
  • मृतक पुलिस इंस्पेक्टर एमसी शर्मा के शरीर की एक्सरे रिपोर्ट कहती हैं कि उनके शरीर में कोई गोली नहीं पाई गई. उनपर दागी गई गोलियाँ क्या हुईं. क्या उन्हें घटनास्थल से फॉरेंसिक जाँच के लिए एकत्र किया गया.

9/25/2008

कौन सुनेगा जामिया का दर्द

आज एक खास रिपोर्ट बीबीसी के इन्टरनेट संस्करण पर पढने को मिला। टीचरों और छात्रों ने आज रैली निकली थी। कुलपति का बयान आया है। बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए अब्दुल वाहिद आज़ाद की रिपोर्ट कुछ यूं है।

दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया इस्लामिया के शिक्षकों ने केंद्र सरकार से माँग की है कि पिछले शुक्रवार को जामिया नगर में हुई पुलिस मुठभेड़ की न्यायिक जाँच कराई जाए.
विश्वविद्यालय परिसर में एक शांति मार्च भी निकाला गया जिसमें कुलपति मुशीरुल हसन, शिक्षक और छात्र शामिल हुए.
शांति मार्च में शामिल छात्र अपने हाथों में तख्तियाँ लिए हुए थे, जिन पर लिखा था, 'हम छात्र हैं, आतंकवादी नहीं'.
पिछले हफ़्ते शुक्रवार को दक्षिण दिल्ली के जामिया नगर इलाक़े में मुठभेड़ हुई थी जिसमें दो संदिग्ध चरमपंथियों की मौत हो गई थी.
पुलिस के मुताबिक़ एक संदिग्ध चरमपंथी गिरफ़्तार किया गया था और दो फ़रार हो गए थे.
जामिया के छात्र भी संदिग्ध
इस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा की भी मौत हो गई थी. पुलिस ने मुठभेड़ के दो दिन बाद तीन संदिग्ध चरमपंथियों को गिरफ़्तार किया था. उनमें से भी दो जामिया के छात्र थे.
पुलिस का दावा है कि इन संदिग्ध चरमपंथियों का संबंध पिछले दिनों दिल्ली में हुए बम धमाकों से था.
जामिया टीचर सॉलिडैरिटि ग्रुप नाम के शिक्षकों के एक समूह ने गुरूवार को एक प्रेस कांफ़्रेंस में जमिया नगर में हुई मुठभेड़ की न्यायिक जाँच कराने की माँग की.
मुठभेड़ पर संदेह
प्रेस कांफ़्रेंस को संबोधित करते हुए प्रोफ़ेसर आदिल मेहदी ने कहा, "जिस तरीक़े से मुठभेड़ हुई है उस पर पर हमारा गहरा संदेह है. इसलिए हम चाहते हैं कि मुठभेड़ की न्यायिक जाँच कराई जाए."
उनका कहना था कि मुठभेड़ के बाद से पुलिस जामिया नगर इलाक़े से जिस तरह बेगुनाह लोगों को हिरासत में ले रही है वह चिंताजनक है.
जामिया के शिक्षकों ने यह भी फ़ैसला किया है कि जो लोग गिरफ़्तार किए गए हैं उन्हें क़ानूनी मदद दी जाएगी. शिक्षकों के इस समूह का कहना था कि वे इलाक़े में 'जन सुनवाई' का भी आयोजन करेंगे.
मीडिया का भूमिका
प्रेस कांफ़्रेंस में एक अन्य अध्यापिका मनीषा सेठी ने कहा कि इस पूरे मामले की जिस तरह से मीडिया ने रिपोर्टिंग की है, वह निंदनीय है.
उनका कहना था "मीडिया जज नहीं है. उसे किसी को भी 'आतंकवादी' कहने का हक़ तब तक नहीं है जब तक अदालत उसे गुनाहगार साबित न कर दे."
उन्होंने कहा कि हम एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश में रहते है और इस तरह किसी के ख़िलाफ़ रिपोर्टिंग नहीं कर सकते कि जिससे एक समुदाय विशेष दबाब में आ जाए.
इस प्रेस कांफ़्रेस से एक दिन पहले यानी बुधवार को जामिया के कुलपति मुशिरुल हसन ने छात्रों और शिक्षकों को संबोधित किया था.
उन्होंने छात्रों से कहा था कि वे किसी के बहकावे में न आएँ और जामिया की जो 'धर्मनिरपेक्ष' छवि है उसे क़ायम रखें.
कुलपति ने अपने भाषणा में इस मामले में गिरफ़्तार किए गए जामिया के दो छात्रों को क़ानूनी मदद देने की घोषणा थी.
बीबीसी से बातचीत में मुशीरुल हसन ने कहा, "हमने कहा है जामिया के जिन छात्रों पर आरोप लगा है कि वे आतंकवादी हैं, उन्हें क़ानूनी मदद दी जाएगी. हम तो सिर्फ़ ये सोचते हैं कि जब तक उन पर अपराध साबित नहीं होता, वे निर्दोष हैं. अगर वे दोषी हैं तो उन्हें सज़ा ज़रूर मिलेगी. "
जामिया में लगभग साठ फ़ीसदी छात्रों के लिए छात्रावास की सुविधा उपलब्ध नहीं है.
ऐसे में विश्वविद्यालय के ज़्यादातर छात्र जामिया नगर के इलाक़े में ही किराए पर कमरा लेकर रहते हैं. पिछले दिनों हुई मुठभेड़ और धर-पकड़ के बाद ऐसे कुछ छात्रों में घबराहट देखने को मिल रही है.
जामिया विश्विविद्यालय प्रशासन का कहना है कि इन तमाम घटनाओं को ध्यान में रखकर गिरफ़्तार छात्रों को क़ानूनी मदद देने की बात कही गई है.

9/24/2008

आप जामिया को कितना जानते हैं


जामिया मिल्लिया इस्लामिया पर लिखने वाले, बहस करने वाले यहाँ तक की बदनाम करने वालों को जामिया के बारे में जरूर जानना चाहिए। जामिया कोई चावल की हांडी नही है, जो एक छात्र के आतंकवादी होने से वहां के सारे छात्र और टीचर आतंकवादी हो गए। जिसे इस तरह की गलतफहमी हो वह एक बार जामिया की तालीम और तह्बीज कर देखे। यहाँ के जैसा लोकतांत्रिक माहौल हर किसी को भायेगा, बनिस्पत आपके मन में कोई खोट न हो।
ऐसे में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे अशोक चक्रधर ने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है, उसका एक अंश :
जामिआ मिल्लिआ एक ऐसी संस्था है जिसका जन्म सन उन्नीस सौ बीस में असहयोग और ख़िलाफ़त आन्दोलन के दौरान गांधी जी की प्रेरणा से अलीगढ़ में टैंटों में हुआ था। बाद में दिल्ली के करोलबाग़ इलाके में 13, बीडनपुरा की एक पक्की इमारत में आ गई। सन उन्नीस सौ इकत्तीस में ओखला में इसकी संगे-बुनियाद अब्दुल अजीज़ नाम के एक बच्चे के हाथों रखवाई गई।
और चचा आपको हैरानी होगी कि आज जो सड़क मथुरा रोड से ओखला और बटला हाउस तक जाती है वह छोटे-छोटे बच्चों के श्रमदान से बनी है।
क्या ही जज़्बा रहा होगा, हमारा मुल्क है, हमारा इदारा है। तालीमी मेला लगता था। हिन्दोस्तान पर प्रोजेक्ट दिए जाते थे। अली बंधुओं की मां इस बात पर गर्व करती थीं कि उनके बेटे अंग्रेज़ों के ख़िलाफ मुहिम में जेल चले गए। जामिआ में एक ख़िलाफ़त बैंड था, जो अंग्रेज़ों के विरुद्ध तराने गाता-बजाता था। जामिआ का तराना मुहब्बत की बात करता है।
जामिआ में जितने भी रहनुमा हुए उन्होंने प्रेम और मुहब्बत का पाठ पढ़ाया और जामिआ के बारे में ये कहा कि पूरे भारत में यह एकमात्र संस्थान है जहां हर मज़हब का आदर करना सिखाया जाता है। इंसान-दोस्ती और वतन-परस्ती सिखाई जाती है। तालीमी आज़ादी, वतन-दोस्ती, क़ौमी यक़जहती, सांस्कृतिक आदान-प्रदान,ज्ञान की विविधता, सादगी और किफ़ायत, समानता, उदारता, धर्मनिरपेक्षता, सहभागिता और प्रयोगधर्मिता यहां के जीवन-मूल्य हैं। वो बच्चे जिन्होंने सड़क बनाई, अब उनमें से कुछ सड़क किनारे बम रखने लगे। मुझे सुबह-सुबह जामिआ के एक उस्ताद मिले। बड़ी शर्मिन्दगी से कहने लगे— लोग हमसे सवाल करते हैं कि क्या आप बच्चों को यही सिखाते हैं। पूछने वालों को क्या जवाब दें? किसी के माथे पर तो कुछ लिखा नहीं होता। लेकिन ये जो नई नस्ल आई है, हिंदू हो या मुसलमान, इसमें कई तरह का कच्चापन है।
जामिआ के सभी कुलपतियों ने विश्वविद्यालय के विकास को लगातार गति दी और इस मुकाम तक ला दिया कि इसकी एक अंतरराष्ट्रीय पहचान बनी। तरह-तरह के सैंटर, नए-नए विभाग, बहुत तरक़्क़ी की जामिआ ने। और अब देखिए। बिगड़ैल बच्चों के कारण मां-बाप को भी शर्मिंदगी का सा सामना करना पड़ रहा है। यह जो अतीफ़ था, जो मारा गया, राजनीति विभाग में ह्यूमन राइट्स में एम।ए। कर रहा था। वो ह्यूमन राइट्स कितना समझ पाया? शायद उसके ज़ेहन में ह्यूमन की परिभाषा कुछ और ही रही होगी। इंसान-दोस्ती सिखाने वाले अध्यापक क्या करें कि बच्चे का कच्चा दिमाग़ इंसान-दुश्मनी तक न पंहुच पाए।
जामिआ के उसूलों की कहानी देश के हर मज़हब के बच्चे को फिर से सुनानी चाहिए और उनसे एक ऐसी सड़क बनवानी चाहिए जो देशवासियों के दिलों तक पंहुचे, जिसपर मुहब्बत के सीमेंट की गाढ़ी और मोटी परत चढ़ी हो।

9/14/2008

हजारों ख्वाईशें ऐसी...

हजारों ख्वाईशें ऐसी... विनीत उत्पल

फिल्म, फ़िल्म और फ़िल्म, यह शब्द है या कुछ और। इससे परिचय कैसे हुआ, क्यों हुआ, यह मायने रखता है। दीवारों पर चिपके पोस्टरों, अख़बारों में छपी तस्वीरें, गली-मोहल्ले में लाउडस्पीकरों में बजते गाने व डायलाग या घरों में रेडियो से प्रसारित होने वाले फिल्मी गाने मन मस्तिष्क पर दस्तक देते। उत्सुकता जगाते। शादी-ब्याह के मौके पर माहौल को मदमस्त करते फिल्मी गाने हों या २६ जनवरी या १५ अगस्त को बजने वाले देशभक्ति के तराने, बचपन की अठखेलियों के साथ कौतुहल का विषय होता। बचपन के वो दिन जब हजारों ख्वाईशें ऐसी कि फिल्मी पोस्टर पर हीरो को स्टाइल देते देख ख़ुद के अरमान स्मार्ट बनने और दीखने की कोशिश में खो जाते। उस दौर में तमाम हीरोइनें एक जैसी लगतीं। मन में उथल-पुथल कि गाने बजते कैसे हैं, डायलाग कैसे बोला जाता है, हीरो जमीन से उठकर परदे पर कैसे आता है, क्या पोस्टर पर दीखने वाला स्टंट वास्तव में होता है।

वो हसीन पल

मां बताती है कि सैनिक स्कूल, तिलैया में हर शनिवार को फ़िल्म दिखाया जाता था। फुर्सत मिलने पर घर के लोग फ़िल्म देखने जाते थे। पापा जब सैनिक स्कूल में गणित के टीचर थे तभी मेरा जन्म हुआ। मैं कुछेक महीने का होऊंगा, तभी पापा सैनिक स्कूल की नौकरी छोड़ भागलपुर विवि में लेक्चरर हो गए। अक्सर मां को याद आता है सैनिक स्कूल के वो पल।

यह आकाशवाणी है

जब मैंने होश संभाला तो घर में उसी रेडियो की आवाज को गूँजते पाया जो पापा को शादी में मिली थी। घर के जो लोग फुर्सत में होते आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले गाने सुनते, एफएम तो था नहीं। स्वाभाविक रहा होगा, मेरी रूचि गाने की ओर बढ़ी होगी। मेरे दादाजी गाना सुनने के शौकीन थे।

यह किसका डायलाग है रे...

घर में रेडियो के माध्यम से जाना कि गाना क्या होता है। मौके-बेमौके पर मोहल्ले में बजने वाले लाउडस्पीकरों से जाना कि यह शहंशाह का डायलाग है या गब्बर सिंह का। उसी दौर में पहली बार टेलीविजन से रूबरू हुआ। मन चंचल और स्वभाव जिद्दी। रविवार की शाम फीचर फ़िल्म दूरदर्शन पर दिखायी जाती। दूसरे के यहां फ़िल्म देखने जाता लेकिन इंटरवल तक। सालों दर साल यही क्रम चलता रहा।

भूखे पेट न भजन गोपाला

मैं उम्र के उस पड़ाव से गुजर रहा था जब मेरे दोस्त लुकछिप कर सिगरेट पीते, फ़िल्म देखने जाते, सेक्स की बातें करते, यहाँ तक कि मारपीट भी। लेकिन मेरी सोच उस वक्त भी और आज भी कुछ उल्टी थी। मेरा मानना था कि जो काम सभी करेंगे वह मैं नहीं करूँगा। यही कारण रहा कि कभी भी मेरे दोस्तों का ग्रुप नहीं बना। दोस्तों की देखा-देखी में सिगरेट को मुंह लगाया लेकिन छिपके कुछ भी काम करना अच्छा नहीं लगा, जो आज भी है। शाकाहारी तो बचपन से हूँ ही। फ़िल्म देखने की इच्छा हुई, लेकिन लगा कि तीन घंटे तक हाल में भूखा रहना पड़ेगा। घर के लोग फ़िल्म देखने जाते नहीं थे, मेरा अकेले जाने का सवाल ही नहीं था।

छुट्टियों में गाँव, गाँव के वो लोग

कालेज में गरमी और दशहरे की लम्बी छुट्टियाँ होती थी। सपरिवार गाँव जाते। वहां के लोगों को फ़िल्म देखने और उसके बारे में विस्तार से बातें करते देखता, चुपके से सुनता। जिसकी शादी होती वह पहली बार अपनी दुल्हन को फ़िल्म दिखाने जरूर ले जाता। मेरा बालमन सोचता और समझता कि फ़िल्म देखना रोमांचक होता होगा। कुछ न कुछ खास तो होगा ही क्योंकि गाँव के लोग शादी के बाद ही सिनेमा देखने जाते है। मैं तय करता पहले फ़िल्म देखने जाऊँगा तब शादी करूँगा।

पापा की मार और दुलार

मेरा सौभाग्य रहा कि पापा ही मेरे पथ-प्रदर्शक रहे। चाहे पढ़ाई की बात हो या दुनिया जहान की। खेल का मैदान हो या फिल्मी दुनिया की, राजनीति की रपटीली राहों की कहानियां हों या बीमारी से छुटकारा पाने की तरकीब, उन्हें आलराउंडर पाया। शायद फिल्मों की बातें भी उन्हीं से जाना होऊंगा, क्योंकि जीवन का सबसे अधिक समय मां के साथ नहीं बल्कि पापा के साथ बीता। सही काम न करने पर वो खुश, नहीं तो डांट-फटकार यहाँ तक कि पड़ती थी मार। पापा ने ही बताया था कि अमिताभ बच्चन एक हीरो है और उसके पिता हरिवंश राय बच्चन एक कवि और प्रोफेसर रहे हैं। मेरा मन सोचता आख़िर मैं भी तो एक प्रोफेसर का बेटा हूँ तो मैं भी क्यों नही...

पहले पढ़ाई फ़िर फ़िल्म

पापा का मानना था कि फ़िल्म देखने में सिर्फ़ समय और पैसे की बर्बादी होती है। तीन घंटे कोई बच्चा पढ़ाई कर ले तो क्लास में बेहतर या मैदान में खेल ले तो अच्छे स्वास्थ का स्वामी बन सकता है। पढ़ाई के मामलों में वे किसी भी तरह का सामंजस्य बिठाने के खिलाफ रहे हैं। यह अलग बात थी कि मेरे मामलों में उन्होंने अपना उसूल बदला। मैं उन दिनों फ़िल्म देखने जाता था, क्या समझता यह पता नहीं। शाम को दूरदर्शन पर फ़िल्म देखने के लिए जाने के लिए भूमिकाएँ बांधनी पड़ती थी। सुबह से शाम तक इतनी पढ़ाई करनी होती थी कि पापा खुश हो जायें। पापा द्वारा पूछे सवालों का जबाब नहीं दिया तो सारी योजना का वाट लगने का खतरा होता था।

जो जीता वही सिकंदर

पापा का कहना था कि क्लास में बेहतर करने के साथ-साथ मेरा दिया हुआ टास्क पूरा करोगे तभी तुम्हारी बात मानी जायेगी। बालपन में अपने सपने को हकीकत में बदलने का एक ही रास्ता सूझता, वो था जमकर पढ़ाई करने का। कभी पापा जीतते तो कभी मैं। शायद पापा को अपने बेटे से हारने के बाद भी गर्व होता, जैसा एक पिता को होता है। वे हंसकर मुझे अपनी मर्जी से जीने की छूट देते। लेकिन जब मैं हारता तो थोड़ी देर के लिए झल्लाता और अपनी खामियों को अगली बार दूर करने का प्रयास करता। ऐसे ही रोमांचक समय में अमर अकबर एंटोनी, नागिन, कालीचरण, शोले, रोटी , कपड़ा औए मकान, सीता और गीता, राम और श्याम, हाथी मेरा साथी, सत्यम, शिवम सुन्दरम, क्रांति आदि न जाने कितनी फिल्में इंटरवल तक देखी।

कल्पना की अनुगूँज

सत्तर व अस्सी के दशक में तारापुर महज एक छोटा सा क़स्बा हुआ करता था। यहां की गलियों में मेरा बचपन बीता। एक ही सिनेमा हॉल था, कल्पना टाकिज। कुछ अरसा पहले पता चला उसका अब नामोनिशान नहीं है। टाकिज के मालिक ने हॉल के बगल में ही एक वीडीओ हाल भी खोला था, जहाँ सीडी के जरिये नयी फिल्में दिखाई जाती थी। कल्पना सिनेमा हॉल की टिकटें १५ अगस्त और २६ जनवरी को उस दौर में भी ब्लैक में बिका करती थीं। ये सब जानकारी मुझे अपने दोस्तों से मिलती रहती थी। दीगर बात यह थी की तारापुर की जनसँख्या कम होने के कारण लोग एक-दूसरे को जानते थे। इस कारण जो भी बच्चे लुकछिप कर फ़िल्म देखने जाते, घर तो घर पूरा मोहल्ला और स्कूल तक में यह ख़बर फ़ैल जाती और लोग उसे अच्छी नजर से देखने से इंकार करते।

पैसे चुराकर देखी थी पहली फ़िल्म

आठवीं क्लास में था, जब पहली बार हॉल में जाकर बड़े परदे पर फ़िल्म देखी थी। घर में दादाजी के बटुए से साढे तीन रूपये चुराए थे। तीन रुपये में दो टिकटें आयीं और पचास पैसे का पसंदीदा नास्ता झालमुढी खाया था। फ़िल्म थी जंगबाज, हीरो थे गोविंदा और राजकुमार। गया तो था फ़िल्म देखने लेकिन जिज्ञासु मन होने के कारण फ़िल्म कम हॉल का सीन अधिक देख रहा था। आगे-पीछे के कुर्सियों की ओर झांक इस डर से भी रहा था कि कोई पहचान का न मिल जाए। डर था कि घर तक मामला बता दिया तो बिना पूछे सिनेमा देखने का दंड भुगतना पड़ सकता है। जिस साथी के साथ फ़िल्म देखने गया था उसे पहले ही मैंने सख्त हिदायत दे रखी थी कि इसकी जानकारी किसी को कानोकान न हो, तभी मैं टिकट का खर्चा दूंगा। हम अपने मिशन में कामयाब रहे थे।

माली तो दो पर फ़िल्म एक

जब आप एक बार किसी काम को पूरा करने में सफल हो जाते हैं तो आपकी इच्छा और मनोदशा कुछ और हो जाती है। तारापुर में फ़िर छिप कर किसी और दोस्त के साथ फ़िल्म एक फूल, दो माली देखने गया। फ़िल्म अच्छी लगी। जीवन के १८ साल तारापुर की गलियों में बिताये लेकिन हॉल में इन दो फ़िल्मों को छोड़ कोई भी फ़िल्म नहीं देखी। या तो छिपकर फ़िल्म देखने की कभी इच्छा नहीं हुई या कल्पना सिनेमा हॉल की बदतर हालत देखकर।

काश, आमिर जैसे स्मार्ट होता

उम्र के जिस मोड़ पर वास्तविक तौर से फ़िल्म जगत से रूबरू हुआ, यही वह वक्त था जब बालीवुड की मायावी दुनिया में आमिर खान, सलमान खान, माधुरी दीक्षित जैसे कलाकारों का पदार्पण हुआ। फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक का पोस्टर देख पसंदीदा हीरा आमिर खान बना तो जूही चावला के मनमोहक मुस्कान खूब भाती थी। माधुरी दीक्षित, दिव्या भारती, काजोल की अख़बारों में छपी तश्वीरें मेरे किताबों के जिल्द को आकर्षक बनाती। इसी कालखंड में घायल, दिल, आशिकी, आज का अर्जुन, हम आपके हैं कौन, कुली नंबर वन, कारण-अर्जुन, दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे, रंगीला, बार्डरतेजाब, मैंने प्यार किया, सौदागर, साजन, सड़क, मोहरा जैसी तमाम फिल्में विभिन्न चैनलों पर देखी।

मैं भी होता एक सितारा

सुनहरे परदे की चमकती दुनिया स्नातक की पढाई करने के दौरान सर चढ़ कर बोल रही थी। सोचता क्यों न फ़िल्म पत्रकार बन जाऊं। उसी दरम्यान एक बार इंदौर गया था, दीदी के पास। पास ही फ़िल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे रहते हैं। उनसे मिलने गया और भविष्य के सपनों को सामने रखा। उन्होंने जहाँ इस फील्ड में न आने की सलाह दी वहीं सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान से डिग्री लेने पर मुम्बई में कुछ बात बनने की बात कही। बस मामला जस की तस अटक गया।

कोलकाता की वो बारिश

इंटर करने के बाद इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तयारी कर रहा था। उसी दौरान कई-कई महीनों तक कोलकाता में रहा। मेरा ठिकाना सेन्ट्रल कोलकाता स्थित राजेंद्र छात्रावास हुआ करता था। वहां रहने के दौरान एक दिन की बात याद आती है। घनघोर बारिश हो रही थी। सुबह उठा, पता नहीं क्या सूझी, फ़िल्म देखने चला गया। अकेला था, मन परेशान था। लगातार चार शो देखा। राजा बाबू और सूर्यवंशम फ़िल्म इनमें प्रमुख था। बाद के साल में कोलकाता में अपने दोस्तों के साथ सरफ़रोश देखी, जिस दिन रिलीज हुई थी।

हॉल में ही सो गया

नब्बे के दशक के आखिर में तारापुर के रामस्वारथ कालेज से पापा का ट्रांसफर मारवाडी कालेज, भागलपुर हो गया। संयोगबस इसी कालेज से मैंने भी स्नातक की है। उस दौरान न तो कभी फ़िल्म देखने की इच्छा हुई और न ही मौका मिला। उस दौर में मेरा सबसे अधिक समय सामाजिक कामों में बीतता था, जिस कारण पापा की नाराजगी का सदैव सामना करना होता था। हाँ, एक बार दीदी और उनके ससुराल वालों के साथ भागलपुर के प्रतिष्ठित हॉल शारदा सिनेमा हॉल में फ़िल्म देखने गया था। संजय दत्त की कोई फ़िल्म थी। सुबह कोलकाता से लौटा था, थका था, हॉल ही में सो गया।

बाइस्कोप की पढाई

दिल्ली आया तो कभी फुर्सत ही नहीं मिली कि मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म देखने जा सकूँ। फ़िर भी इतने सालों में सिर्फ़ और सिर्फ़ तीन फिल्म देखी। मेरी बुरी आदत रही है कि जो कम मन से नहीं हुआ उसका बारे में ज्यादा ख्याल नहीं रखता, यही इन तीनों फ़िल्मों के साथ हुआ। दोस्तों का मन रखने गया था। जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से कोर्स करने के दौरान सही तौर पर फिल्मों और इसकी बुनयादी चीजों से अवगत हुआ। यहीं, गोविन्द निहलानी को सुना, अनवर जमाल व सेजो सिंह की बनी फ़िल्म स्वराज देखी। फ़िल्म के तकनीकी पक्षों को जाना। अशोक चक्रधर ने अपनी बनी टेली फ़िल्म दिखाई। निर्देशक के काम को जाना, स्क्रिप्ट राइटिंग सीखी। असगर वजाहत और जवरीमल पारिख जैसे टीचर मिले। विवेक दुबे ने दुनिया की बेहतरीन फ़िल्मों की जानकारी दी।

जिन्दगी की जीत पर यकीन कर

जामिया में पढाई के दौरान और अपने समय की बेहतरीन फ़िल्मों को देख कर सिने जगत के कई पहलुओं से अवगत हुआ। घर में भी इस बात के जानकारी दी। न तो मैं और न ही मेरे घर के लोग इस विधा को उस नजरिये से देखते हैं जिस नजरिये से आम पब्लिक देखती है। भले ही लोगों को फ़िल्म के मायावी दुनिया प्रभावित करती हों, लेकिन मेरे साथ ऐसा कभी नहीं रहा। वास्तविकता के धरातल पर जीना शगल है, भले ही कल्पना की उड़ान आसमान के इस छोड़ से उस छोड़ तक अपनी तान भरती रहे।

9/13/2008

बिहार के बाढ़ पीड़ितों के नाम एक शाम

Dear friends,

This is to inform you that Rag Virag Cultural and Educational Society, New Delhi is organizing "HAMAREE SANSAKRITIK DHAROHAR " for the relief of Bihar flood victims।This is the campaign to support or provide aids to the suffering people and this becomes our responsibility to help them and shows our humanity towards other human being।The disaster in North-eastern Bihar is not just a flood, but its a serious natural calamity of changing of path of a river।This calamity has caused 40 lakh people displaced and homeless for about two years, until the dam is repaired and river goes back to its old path।
Ms।Sheila Dikshit, Honorable Chief Minister of Delhi has given her kind consent to be the Chief Guest as per the following programme:
Date: 16th September (Tuesday)
Time: 6।०० शाम
Venue: Bal Bhawan, Kotla Road, ITO, New Delhi

We take this opportunity to invite you to join the programme। We hope you shall very kindly accept our invitation and hope to see you there with friends and family।
Thanking you and with warm regards,
Yours sincerely,
Punita
Secretary
www.punitaragvirag.com
N.B. Please do come with your family and friends. Kindly treat this letter of mine as the invitation card.

9/01/2008

कोसी में समाया मेरा गाँव

आय ते तोरा से गप भए रहल छौ, लेकिन भेंट नहि हेतो।" यह शब्द मेरे उस चचेरे भाई शंकर भैया के हैं, जिनके साथ कभी साथ खेलते थे, साईकल पर बैठाकर उदा, किशुनगंज्, ग्वालपाड़ा, बिहारीगंज ले जाते थे. सुखसेना संस्कृत कालेज के टापर रहे भैया कि नियति ऐसी है कि आज वह अपने परिवार के साथ किशुनगंज में मौत को नजदीक से देखते हुए आलंगन की बाट जोह रहे हैं.
मधेपुरा-किशुनगंज रोड पर ग्वालपाड़ा से पांच किलोमीटर आगे उदा है। उदा पुल से महज आधा किलोमीटर आनंद्पुरा है जहां मेरे बचपन के दिन बीते. बगीचे में आम तोडकर खाये. भुट्टे चुराये और गन्ने चूसता था.लेकिन आज गांव में पानी है. घरों की पांच से छह फ़ीट पानी है.तेरह दिनों से कोशी का प्रकोप सभी झेल रहे है.
पापा और मम्मी भागलपुर में हैं। कुछ दिन पहले भागलपुर विश्वविद्यालय में हड़्ताल थी, तब पापा और मम्मी आनंद्पुरा गये थे. उनकी आत्मा तो बस आनंदपुरा में ही बसती है. हमेशा कह्ते, प्रोफ़ेसर की नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद तुम्हारे पास से जब मन उब जायेगा, तब गांव में ही रहुंगा. मां कह्ती एक बार नौकरी सी सिर्फ़ दस दिन की छुटी लेकर आ जाओ, गांव चल कर देखो. इस साल भी जब होली से पहली भागलपुर गया था तो मां ने जिद की थी जाने के लिये, लेकिन जा नही पाया था.
उस दिन चार बजे सुबह आफ़िस से आने की बाद अपने शकरपुर के कमरे पर सो रहा था, लगभग सात बजे मोबाइल पर चचेरे भाई चंदन भैया का फ़ोन देखकर नींद खुल गयी। वह दिल्ली में ही रह्ते हैं. उनसे हुई बात ने मेरी नींद उड़ा दी.बताया गांव में एकाएक पानी घुस आया है. सभी लोग छत पर दिन्-रात गुजार रहे हैं.
मैने तुरत पापा को फ़ोन लगाया। पापा ने कहा चाचा से तीन दिन पहले बात हुई थी, लेकिन अंदाजा था कि शायद पानी आ सकता है. फ़िर पापा ना जाने कहां-कहां फ़ोन कर सभी सम्बंधियों की खोज-खबर ले रहे हैं
बडे चाचा का पूरा परिवार किशुनगंज में फ़ंसा है। किशुनगंज से बिहारीगंज जाना मुश्किल है. बिहारीगंज से बनमनखी तक ट्रेन कल तक चल रही थी, बीबीसी ने खबर दी है कि आज ट्रेन चलना भी बंद हो गया.
छोटे चाचा, चाची और उनकी नतनी गुड़िया रविवार को किशुनगंज बीडीओ के परिवार के साथ किशुनगंज से बिहारीगंज के लिये निकल चुके हैं, लेकिन अभी कहां हैं। कुछ पता नहीं.पूरी बस्ती में कोई नहीं है, मालूम चला कि गांव के एक चाचा खोखा काका सिर्फ़ वहां गांव की रखवाली के लिये मौजूद हैं.बचपन से मैं ही नहीं लोगों ने उनके अदम्य साहस को देखा है.
सोच कर सिर दर्द करने लगता है। शरीर कांपने लगता है, बाढ़ की जानकारी पाकर्, जानकारी सुनकर्.वह भीत के घर की याद आती है, जिसे तीनों बहनों ने मिलकर, मां के साथ हाथ बंटाकर बनाया था. याद आ रहा है वह लकड़ी का वो सामान जो कभी मैने पूर्वजों के रोपे पेड़ को काट कर बनवाया था,वो आकर्षक डिजाइन का पलंग,वो कुर्सी.याद आ रही है अपनी दादाजी का समाधि स्थल्.
पापा कह रहे थे थोड़ा भी पानी कम हो तब तो वहां जा सकेंगे। सुबह से शाम तक गांव के लोगों को घर-घर फ़ोन कर कहते आप गांव छोड्कर बाहर आ जायें.बाद में सब ठीक हो जायेगा.
आज शंकर भैया बता रहे थे कि राहत सामग्री नही के बराबर है।कई-कई दिनों के बाद नाव आती है. हेलिकाप्टर से गिराये जा रही राहत सामग्री पानी में जा रहा है. यहां किसी का कोई सुनने वाला नही है. जीवन का क्या होगा, पता नहीं.
पापा की सबसे बड़ी बहन यानी मेरी बूआ लापता है। बूढ़ी आंखें पता नही अपनों को देख पायी होगी या पायेगी मालूम नही.
माना कि कोसी, गंडक और बागमती मिथिलांचल में हर साल कहर बन कर आती है।लेकिन इस बार जो हुआ इसके पीछे आप माने या माने मेरा मानना है कि यह विपदा मनुष्य की खुद की बनायी है.
बस, अब आगे लिखने की हिम्मत नही हो रही है. पता नही वो गांव्, वो गलियों में फ़िर से रौशन होगी कि नहीं, अपनी हाथों से बानाये घरोंदे को हमारे जैसे और परिवार देख पाएंगे कि नहीं.