8/16/2011

कोसीनामा-5


सफर नहीं था आसान
कोसी इलाके में बाढ़ किस कदर कहर बरपाती है, ये घटनाएं दशकों बाद रोंगटे खडे़ करते हैं। मानसून के मौसम में कोसी सहित इसकी तमाम सहायक नदियां उफान पर होती हैं और पूरे इलाके को जलमग्न करती हैं। ऐसे में सड़क परिवहन से लेकर रेल परिवहन किस कदर प्रभावित होता है, यह देखना हो तो जरा इस मौसम में पूरे इलाके का दौरा करना मुनासिब होगा।
भागलपुर गंगा पुल बनने से पहले कोसी क्षेत्र की हालत यह थी कि दक्षिण बिहार से वहां पहुंचने के लिए मुंगेर, अगवानी घाट और बरारी घाट के अलावा महादेवपुर घाट से नाव, स्टीमर के जरिए गंगा पारकर लोग कोसी क्षेत्र में प्रवेश करते थे। वैसे भी दो दशक पहले यदि कोसी क्षेत्र के लोगों को बाजार करना होता था तो वे भागलपुर ही बाजार करने जाते थे। ऐसे में ये चारों घाट देवघर, दुमका, बांका, भागलपुर, मुंगेर, साहेबगंज आदि सहित झारखंड के तमाम जिलों को कोसी क्षेत्र स जोड़ने का काम करता था। कई-कई बार लोगों को अपने गंतव्य तक पहुंचने में एक दिन से भी अधिक का समय लगता। जो लोग मुंगेर घाट से गंगा पार करते और उन्हें सहरसा, मधेपुरा, सुपौल, पूर्णिया, कटिहार जाना होता, वे खगड़िया आकर ट्रेन पकड़ते थे। जो लोग सुलतानगंज में गंगा पार करते, वे अगुवानी आकर वहां से महेशखूंट और फिर मानसी आकर ट्रेन पकड़ते। यही हाल बरारी और महादेवपुर घाट का होता, जहां लोग बिहपुर में जाकर ट्रेन पकड़ते।
खगड़िया, मानसी, सहरसा के बीच बड़ी लाइन बनने के बाद सफर आसान हो गया है लेकिन कभी वक्त था जब इस लाइन में सफर करने के लिए एकमात्र विकल्प छोटी लाइन की ट्रेनें होती थीं। अधिकतर ट्रेनें लेटलतीफ चलतीं तो इस रूट पर ट्रेन से सफर करने के लिए लोगों को बागी के ऊपर बैठना पड़ता था। खगड़िया-मानसी-महेशखूंट होकर असम रोड जाती है और बाढ़ के मौसम में इस नेशनल हाइवे के किनारे महीनों तक लोगों को टैंट लगाकर अपनी रात बिताते देखा जा सकता था। मानसी स्टेशन के एक ओर बड़ी लाइन है तो दूसरी ओर छोटी लाइन गुजरती थी। बड़ी लाइन की ओर प्लेटफार्म पर एक किताब की दुकान हुआ करती थी जिसके मालिक काफी पढ़ाकू थे। हालांकि वे एक पैर से विकलांग थे लेकिन उनकी दुकान पर उस समय की तमाम पत्र-पत्रिकाएं होती थीं। मसलन, बालहंस, बालभारती, पराग, नंदन, सुमन सौरभ, अविष्कार, विज्ञान प्रगति, चंपक आदि।
उस दौर में जब समस्तीपुर से नरकटियागंज जाने वाले ट्रेनें लेट होती तो मानसी जंक्शन का पूरा का पूरा प्लेटफार्म यात्रियों से भरा होता। यात्री पूरे परिवार के साथ चादर, गमछा या अखबार बिछाकर देर रात तक सोते अौर ट्रेन आने पर ऊंघते हुए सफर करने के लिए मजबूर होते। अंग्रेजों के जमाने के रेल पुल की हालत इतनी खराब होती कि जब भी कोई पुल आता तो लोग 'जय कोसी माय" कहकर प्राण रक्षा की गुहार लगाते। सहरसा से मानसी तक का सफर ऊपर वाले की कृपा से पूरी करते। उस दौर में सहरसा से मानसी के बीच के स्टेशनों पर अपराधियों का इस कदर बोलबाला रहता कि जैसे ही ट्रेन खुलती, खिड़की किनारे बैठे लोगों के हाथों से घड़ी या गले की चेन झपटी जा चुकी होती।
जिन लोगों को पूर्णिया जाना होता था, वे मानसी में छोटी ट्रेन से सहरसा आते। फिर ट्रेन बदलकर बनमनखी आना होता। फिर वहां से पूर्णिया जाते। जिन लोगों को चौसा, आलमनगर, उदा किशुनगंज जाना होता, वे या तो दौरम मधेपुरा उतरकर बस या जीप से अपने गंतव्य तक जाते। या फिर बनमनखी से बिहारीगंज आकर फिर जीप या टमटम से लोग अपने घरों को जाते।

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