8/03/2011

कोसीनामा-1


कोसी की गाथा या यों कहें दु-गाथा की कई कहानियां हैं। क्योंकि इसे 'बिहार का शोक" कहा जाता है। इसकी कोई मुख्य धारा नहीं है। उत्तर बिहार के समूचे इलाके के विस्तृत भूभाग से होकर यह गुजरती है। इलाके के लोग इसे 'धार" कहते हैं। बिहार के सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया, कटिहार, अररिया आदि जिलों के तमाम इलाकों में घूम आइये, कोसी किसी न किसी रूप में आपको 'ठाम-ठाम" पर मिल जाएगी। बड़े-बड़े नालों की तरह दीखने वाली कोसी की 'धार" आपको कभी सूखी मिलेगी तो कभी पानी से लबालब। कहीं इस पर सरकार के द्वारा बनाया गया 'पुलिया" दीख जाएगा तो कहीं ग्रामीणों द्वारा बांस, लकड़ी या फिर सीमेंट के पोल से बनाया गया पुल। अनोखी दास्तां है कोसी की और कोसी के दामन में रहने वाले लोगों की।
कोसी कभी सूखती नहीं। इसकी आंखों में आंसू हमेशा रहते हैं। अपने अल्हड़पन से लोगों को त्रस्त करने के बाद इसे काफी पछतावा भी होता है। क्योंकि बरसात के मौसम के बाद जब यह शांत होती है तो पूरे इलाके में कोसी के दर्द को देखा जा सकता है। छोटे-बड़े नालों के रूप में बहने वाली कोसी में पानी तो जरूर रहता है लेकिन वह उसके विराट स्वरूप में सिर्फ आंसू की तरह नजर आता है। उस वक्त न वह अल्हड़पन दिखाई देता है और न ही औघड़पन। शांत, निर्मल। इतना निर्मल कि आप यदि एक 'चुरू" पानी भी भी लें तो आपकी आत्मा 'तिरपित" हो जाएगी। आपको विश्वास नहीं होगा कि यह वही कोसी है, जिसके गुस्सैल स्वभाव ने इलाके को जलमग्न कर दिया और सभी को खुद में समाहित कर चुकी है। यह हाल बरसात के मौसम के बाद पूरे साल कोसी की रहती है।
जब आप कुरसेला से होकर गुजरेंगे, वह चाहे रेल मार्ग हो या फिर सड़क मार्ग। कुरसेला पुल से गुजरते हुए आपको साफ-साफ दीख जाएगा कि किसी तरह कोसी गंगा से मिल रही है। एक तरह 'तामस" रखने वाली कोसी वहीं दूसरी तरफ शांत-निर्मल गंगा। दोनों के पानी में अंतर। रंग में अंतर। पानी की धारा में अंतर। नदी की 'चक्करघिन्नी" में भी अंतर। लेकिन कोसी अपने इलाके में क्यों न कितनी भी झटपटाहट रखती हो, करवट बदलती हो लेकिन जब उसे गंगा 'हग" करती है तो फिर क्या मजाल कि कोसी का मन शांत न हो। जो कोसी हर साल पूरे इलाके में जानमाल से लेकर लाखों की संपत्ति लील जाती है उसी कोसी का मन गंगा से मिलकर गंगा में ही विलीन हो जाती है। कोसी मैया है और गंगा भी मैया। लेकिन गंगा को कोसी की 'पैग" बहन कहा जाता है। गंगा तो गंगा लेकिन कोसी जब गंगा के आंचल में आती है तो उसे 'माय के आंचर" जैसा सुकून मिलता है। लोग कहते हैं कि जब कोसी लहलहाती है तो उसके सामने कोई भी ठहर नहीं पाता लेकिन वह जब गंगा में मिलती है तो उसके तीव्र वेग कहां चला जाता है, कोई नहीं जानता।
कोसी में एक विक्षोभ है, वही विक्षोभ आपको यहां की मिट्टी में पले लोगों में मिलेगा। कोसी में एक सन्यास भाव है, वह न किसी से प्रेम करती है और न ही विरक्ति का भाव ही रखती है। कोई मोह नहीं, कोई माया नहीं। एक औघड़पन है, एक अल्हड़पन है कोसी में। जब जिधर मूड किया, उसी करवट में चलती रहती है। गांव का गांव डूब गया, कोई अपनत्व नहीं दिखाती तो कोई परायापन भी नहीं है इसमें। कोसी लोगों को जीना सिखाती है। कोसी संदेश देती है कि यह जीवन क्षणभंगुर है। न किसी से मोह रखो और न ही किसी से द्वेष ही। कोसी की नजर में सब एक है, बिलकुल 'सूफी" की तरह। सूफीनामा अंदाज में वह पूरे इलाके में घूमती रहती है। गंगा से उसे जबर्दस्त लगाव है। वह बंधे नहीं रह पाती लेकिन गंगा से मिलने के बाद अपने वजूद को भूल जाती है।

6 comments:

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...
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विनीत उत्पल said...

Arvind Thakur
कोशी नेपाल से जब भारतीय भू-भाग में प्रवेश करती है तो सबसे पहले सुपौल उसे अपने छाती पर झेलती है|आपके बढिया आलेख से सुपौल का नाम क्यों वंचित है?अभी'प्रभात खबर'में आइ आइ टी मद्रास के श्रीश चौधरी का कोशी पर आलेख आ रहा है,जिसमें 2008 की बाढ को वे सहरसा में सीधे प्रवेश करा कर वहां के अधिकारियों की लानत-मलामत कर रहे हैं,जबकि दोषी सुपौल के तत्कालीन डीएम शरीफ़ आलम थे और जिन्हें हटाकर एन सरवण कुमार को लाया गया था|सुपौल को जिला बने भी लंबा अर्सा हो गया,इसलिये इसके विस्मरण का कोइ कारण भी नही दिखता |बहरहाल अपने कोशीनामा के द्वारा एक प्रवाहमय गद्य का मजा देने के लिये धन्यवाद स्वीकार करें

विनीत उत्पल said...

अरविन्दजी, सुपौल का नाम भूलवश छूटा है. पाठक इसमें सुपौल सहित और जो भी जिले आते हों, नाम जोड़ सकते हैं. यह तो मैंने शुरुआत की है. आप आदरणीय पाठक इसी तरह मेरा ज्ञानवर्धन और खामियों को बताते रहें तो कोसीनामा की यह श्रंखला बेहतरीन रूप में आपको पढने को मिलेगी. प्रोत्साहित करने के लिए आभार.

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

विनीत भाई- मुझे हल्कापन लगा,मैं कोसी पर थोड़ा और विस्तार से पढ़ना चाहता हूं। मुझे अच्छा लगता यदि आप कोसी-सूफी को लेकर बात और बढ़ाते। मैंने पहली टिप्पणी जल्दी में कर दी थी, सोचा वाह-वाह करने से अच्छा है कि जहां पाठक अटक रहा है उस बात को लेखक तक पहुंचाई जाए। हमें आपसे सपाट लेख की आशा नहीं है। आप इसे और घुमाइए, सूफी संगीत डालिए। इसी आशा के साथ। -गिरीन्द्र

विनीत उत्पल said...

गिरीन्द्रजी, यह बस शुरुआत है, आप लोग इसी तरह प्रोत्साहन करते रहें, खामियां बताते रहें तो आगे के सफ़र में आनंद आएगा और पढने में मजा भी.

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

हां विनीत भाई।