10/22/2010

जिम्मेदार कौन?

आज भी बेटे और बेटियों में भेद किया जाता है। बेटे बाहर जाकर पढ़ेंगे लेकिन बेटियां घर पर रहकर बर्तन मांज-मांजकर रट्टा लगाने के लिए मजबूर है। शादी हुई तो तुरंत मां-बाप, सास-ससुर, ननद-भौजाई को संबंधों में ‘प्रमोशन’ पाने की ललक होने लगती है यह जाने बिना कि ‘लड़की’ शारीरिक और मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार है भी या नहीं। कितनी आमदनी है, कितना खर्च होता है, भविष्य के क्या सपने है, आदि-आदि बात पर कैसे कोई गौर करेगा, अहम सवाल है?

क्या आपने कभी सोचा है कि आपके काम पर न जाने और घर में रहने से घरेलू बजट पर क्या प्रभाव पड़ता है। क्या एक बार भी लगा कि आपने नौकरी छोड़ दी है या नौकरी नहीं कर रही है तो घर का कर्ज कैसे निबटेगा। घर खरीद लिया है, बच्चों की पढ़ाई है, फिर सामाजिकता है, खान-पान है तो जाहिर सी बात है कि खर्च तो होता ही है। हालांकि इस मामले को सोचने की जहमत शायद ही कोई भारतीय परिवेश में उठाता हो। यहां महिलाओं को तो बंद चारदीवारी में रहना, बच्चों को पालना, सास-ससुर की सेवा करना आदि से ही फुर्सत नहीं मिलती है। पुरुषप्रधान समाज में इस हिसाब-किताब के चक्कर में महिलाएं नहीं पड़ती। विश्वास न हो तो अपने घर क्या आस-पड़ोसी के यहां जाकर हालात पर नजर डाल लीजिए।
पिछले साल मंदी के दौर में बेरोजगार हो चुकीं करीब पचास हजार महिलाएं ब्रिटेन में नौकरी करने के लिए मजबूर हुईं। इनके घर में रहने से जहां कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा था वहीं घरेलू कामकाज में काफी खर्च भी हो रहा था। ब्रिटेन के ऑफिस फॉर नेशनल स्टैटिस्टिक्स के मुताबिक, पिछले तीन महीने में बेरोजगारी 25 लाख से घटकर 20 हजार पहुंच चुकी है। मंदी के दौर में करीब 25 लाख लोग बेरोजगार हुए और माना जा रहा था कि 2012 तक इनकी संख्या करीब 29 लाख हो जाएगी। महिलाओं के घर में रहने से परिवार पर काफी कर्ज हो गया और आर्थिक तौर से काफी परेशान रहने लगीं। कई घर कर्ज में डूब गए क्योंकि उन्होंने जो कर्ज लेकर घर खरीदा था उसे वे चुका नहीं पा रहे थे। हालांकि महिलाओं के घर में रहने से बच्चों को काफी फायदा हुआ और उनकी सही देखभाल और परवरिश होने लगी।
सर्वे के मुताबिक, काफी महिलाएं अपने काम पर लौटने के लिए विवश हुई है। Uswitch.com ने अपने सर्वे में यह सवाल किया था कि उनके बच्चे तीन साल से भी कम उम्र के है, फिर उन्हें काम पर लौटने की मजबूरी क्या थी। करीब 50 फीसद महिलाओं ने माना कि आर्थिक संकट खासकर कर्ज से वह परेशान थीं और उसे लौटना था। इस कारण वे काम पर लौटने के लिए विवश हुईं। इसके अलावा वे पार्ट टाइम जॉब करने के लिए मजबूर हुईं। माना जा रहा है कि करीब 80 लाख महिलाओं के साथ-साथ बच्चे भी पार्टटाइम जॉब करने के लिए मजबूर हुए है। पिछले दो सालों में ब्रिटेन में जहां करीब सवा सात लाख फुलटाइम नौकरी की कमी आई वहीं साढ़े चार हजार पार्टटाइम नौकरी में इजाफा हुआ है।
परिवार की गाड़ी पति और पत्‍नी रूपी दो पहियों के समन्वय से चलती है। आजादी के 62 साल बाद भी देश की स्थिति बदली नहीं है। शहर या फिर मेट्रो सिटी में तो हालात कुछ बदले है लेकिन गांव या छोटे शहरों के परिवारों को देख लें, आज भी स्थिति जस की तस है। परिवार में आज भी बेटे और बेटियों में भेद किया जाता है। बेटे बाहर जाकर पढ़ेंगे लेकिन बेटियां घर पर रहकर बर्तन मांज-मांजकर रट्टा लगाने के लिए मजबूर है। जिंदगी जीने का ककहरा सीखी नहीं, ग्रेजुएट होते-होते शादी की चिंता माता-पिता को सताने लगती है। शादी हुई तो तुरंत मां-बाप, सास-ससुर, ननद-भौजाई को संबंधों में ’प्रमोशन‘ पाने की ललक होने लगती है यह जाने बिना कि ’लड़की‘ शारीरिक और मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार है भी या नहीं। ऐसे में बाहरी दुनिया का दवाब कोई भी लड़की कितना झेल पाएगी, सवालिया निशान उठना लाजिमी है। फिर घर के मामले में कि कितनी आमदनी है, कितना खर्च होता है, भविष्य के क्या सपने है, आदि आदि बात पर कैसे कोई गौर करेगा, अहम सवाल है।

1 comment:

अरुण चन्द्र रॉय said...

विनीत जी आप आंशिक रूप से सही हैं.. स्थिति मे काफी सुधार हुआ है... वैसे चिन्तन को प्रेरित करता आलेख..