भारत में बनने वाली फिल्मों के अंतरराष्ट्रीय बाजार को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि जो फिल्में यहां के बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित होती है, वही विदेशों से जबरदस्त पैसा उगाह लाती है और काफी हद तक फिल्म से जुड़े लोगों को राहत पहुंचाने का काम भी करती है। और तो और, जो समाज सामाजिक मूल्यों की बात करता है, उसी की नाक के नीचे वे सभी घटनाएं घट रही है जिन पर बनने वाली फिल्मों के डायलॉग और सीन पर सेंसर बोर्ड की कैची चलती है।भारतीय सिनेमा और दर्शकों की रुचियों को देखते हुए सिनेमैटोग्राफ एक्ट में बदलाव लाने की जरूरत महसूस की जा रही है। अभी तक भारत में यू, यूए और ए कैटेगरी के तहत फिल्म का वर्गीकरण किया जाता है। तीनों कैटेगरी की फिल्मों में क्या अंतर होता है, शायद ही किसी दर्शक को पता हो। आमतौर पर माना जाता है कि नग्न और अश्लील सीन वाली फिल्मों को ‘ए’ सर्टिफिकेट दिया जाता है, जो सच नहीं है। वर्तमान में सेंसर बोर्ड की हालत यह है कि ‘राजनीति’ को ‘ए’ सर्टिफिकेट देती है, वहीं ‘काइट्स’ को ‘यू’ मिलता है। दूसरे देशों में सेंसर सर्टिफिकेट सामान्य तौर पर भाषा, 'हिंसा, नग्नता और विषय पर दिए जाते है। साथ ही, दर्शकों की उम्र का भी बारीकी से ध्यान रखा जाता है।
ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों में अलग-अलग नामों से करीब आधा दर्जन कैटेगरी है। वयस्क और सामान्य के बीच भी कई कैटेगरी होती है। फ्रांस में 10, 12, 16, 18 की उम्र की अलग-अलग कैटेगरी है तो ब्रिटेन में 12, 15 और 18 और जर्मनी में 6, 12 और 16 की। यहां तक कि तुर्की में 7, 11, 13, 16 और 18 की उम्र के आधार पर फिल्म की कैटेगरी तय की जाती है। जहां तक भारत का सवाल है, सिनेमैटोग्राफ एक्ट में बदलाव कर अंतरराष्ट्रीय स्तर की सोच बढ़ाने की जरूरत है। यह सही है कि इससे संबंधित विधेयक में यूए 12 प्लस और 14 प्लस दो कैटेगरी सुनिश्चित की जा रही है। साथ ही, पहले से मौजूद एस (स्पेशल) कैटेगरी को और भी सख्त करने की बात कही गई है। गौरतलब है कि इस कैटेगरी में गैर फीचर फिल्में होती है।
सेंसर बोर्ड का जिम्मेदाराना या गैर जिम्मेदाराना रवैया, इसी बात से समझा जा सकता है कि किसी भी विषय या संवाद पर कोई विवाद शुरू भी नहीं होता कि उसके कान खड़े हो जाते है और नींद हराम हो जाती है। पर सवाल है कि किसी भी फिल्म में थोड़ा-सा विवाद हुआ नहीं कि उस पर सवालिया निशान उठने शुरू हो जाते है। ऐसे में बोर्ड के सदस्यों को जरा-सा भी लगता है कि यह विषय या संवाद विवाद खड़ा कर सकता है तो उसे कटवा देते है। यही कारण है कि सेंसर के सुझाव के मुताबिक, विषय को हटा देते है या फिर शब्दों को ब्लिप कर देते है। मसलन, विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘कमीने’ में उत्तर प्रदेश के एक शहर का नाम बदलना पड़ा तो अभिषेक चौबे की फिल्म ‘इश्किया’ में भी डायलॉग ब्लिप करने पड़े। दिवाकर को एलएसडी की पहली कहानी में जातिबोधक सरनेम तक हटाना पड़ा था। वर्तमान दौर में जिस तरह ताबड़तोड़ फिल्में रिलीज हो रही है, किसी भी मुद्दे पर बैठकर बातें रखने या फिर उसे सुनने की क्षमता किसी के पास नहीं है। बहरहाल, चाहे सिनेमैटोग्राफ एक्ट में बदलाव की बात हो या फिर सेंसर बोर्ड के सदस्यों की मानसिकता, फिल्म का विषय, चित्रण आदि की बारीकियों को भी समझना होगा। देश में बनने वाली फिल्मों के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराही जा रही फिल्मों की विषय-वस्तु की भी समझना होगा। साथ ही, भारत में बनने वाली फिल्मों के अंतरराष्ट्रीय बाजार को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि जो फिल्में यहां के बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित होती है, वही विदेशों से जबरदस्त पैसा उगाह लाती है और काफी हद तक फिल्म से जुड़े लोगों को राहत पहुंचाने का काम भी करती है। और तो और, जो समाज सामाजिक मूल्यों की बात करता है, उसी की नाक के नीचे वे सभी घटनाएं घट रही है जिन पर बनने वाली फिल्मों के डायलॉग और सीन पर सेंसर बोर्ड की कैची चलती है। ऐसे में, कोई निदशक उन घटनाओं को बखूबी परदे पर दिखाकर समाज को समाज का आईना दिखाने की कोशिश करते है तो किसी को क्यों आपत्ति हो? आखिर समाज को उसी का चेहरा दिखाने के लिए साहस की जरूरत होती है। ऐसे में, रचनात्मकता का नया मापदंड गढ़ने वाले लेखकों और निदशकों पर सेंसर बोर्ड का लगाम किसी भी सिरे से स्वीकार करने से पेट दर्द होता है, क्योंति उनके निर्णय कहीं से भी बचकाने लगते है।
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