2/02/2011

जी, दिल है ही बच्चा


'दिल तो बच्चा है जी' के जरिए गंभीर और रियलिस्टिक फिल्में बनाने वाले मधुर भंडारकर ने नया प्रयोग किया है और गंभीरता व हास्य के पुट के बीच सामंजस्य स्थापित किया है.
हालांकि हिन्दी फिल्मों में हास्य की कमी कभी नहीं रही है. ऐसे में डेविड धवन, अनीज बज्मी, प्रियदर्शन की पंक्ति में अब मधुर भी खड़े हो गए हैं. 'चांदनी बार' से लेकर 'जेल' तक में दर्शकों ने मधुर के कामों में काफी गंभीरता देखी है जहां सिर्फ और सिर्फ मुद्दे की बात होती रही थी. कुछ ही दिन पहले फिल्म आई थी 'टर्निंग 30' जिसमें लड़कियों की सोच को बखूबी दिखाया गया था और इसी परिपेक्ष में 'दिल तो बच्चा है जी' को देखें तो उस प्लेटफार्म पर उस पुरुष सोच को पुख्ता करती नजर आती है जो दो तरह की जिंदगी जीते हैं.
'दिल तो बच्चा है जी' वास्तविकता के धरातल की कहानी है जिसके किरदार हमारे आसपास के लोग जैसे हैं तो घटनाएं और समस्याएं भी कुछ इतर नहीं. फिल्म की कहानी मुंबई में रह रहे तलाक के दरवाजे पर खड़े 38 साल के नरेन (अजय देवगन), आशिक मिजाज अभय (इमरान हाशमी) और संस्कारी मिलिंद (ओमी वैद्य) के जीवन की हैं. प्यार की तलाश में खड़े अलग-अलग उम्र के तीनों के स्वभाव एक-दूसरे से नहीं मिलते. प्रेम और विवाह को लेकर उनकी सोच भी अलग है. तीनों की कोई सच्ची प्रेमिका नहीं है. नरेन और मिलिंद को जहां उसकी प्रेमिकाएं भरपूर यूज करती हैं वहीं अभय यानी अबी प्ले ब्वाय होता है लेकिन जब उसे सच्चा प्यार होता है तो वह लड़की उसे ठुकरा देती है.
फिल्म शहरी समाज में आए परिवर्तन को बखूबी परिभाषित किया है जहां करियर और जिंदगी के मायने अलग-अलग हैं. जून पिंटो (शाजान पदमसी), गुनगुन सरकार (श्रद्धा दास) और निक्की नारंग (श्रुति हसन) बदलते समाज की मानसिकता को दर्शकों के सामने रखती हैं. रिश्तों को लेकर युवाओं की सोच को सामने रखने का काम मधुर ने किया है. अजय देवगन ने  बढ़िया काम किया है और उनकी आंखें भी फिल्म के किरदार के तौर पर सामने आती हैं. इमरान हाशमी अपने चिरपरिचित अंदाज में ही हैं. 'थ्री इडियट्स' के चतुर सेन यानी ओमी वैद्य फिर अपने किरदार से लोगों को हंसने के लिए मजबूर करते हैं. अभिनेत्रियों में श्रुति हसन का रोल छोटा है और शाजान पदमसी ने बढ़िया काम किया है. श्रद्धा दास ने गुनगुन सरकार के किरदार में जान डाल दी है. फिल्म में प्रीतम का संगीत है जो कर्णप्रिय तो हैं लेकिन कोई भी गाना लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ पाया है.
कहानी में नयापन नहीं होने के बावजूद दर्शकों को बांधे रखने में सक्षम है. पहले हाफ में काफी हंसी आती है लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म काफी सीरियस है. क्योंकि रोमांटिक कॉमेडी होने के साथ इसमें रियलिस्टिक टच है और मधुर स्टाइल पूरी फिल्म में नजर आती है. बावजूद इसके, कहीं न कहीं, डायलॉग, सिनेमेटोग्राफी में साफ-साफ कमी नजर आती है. हां, सेंसर बोर्ड ने किस पैमाने के तहत इसे 'ए' सर्टिफिकेट दिया, यह शायद ही किसी को समझ में आए. जबकि काफी भद्दे और अश्लील डायलॉग वाली फिल्में इधर आई हैं और उन्हें एडल्ट की श्रेणी में शामिल नहीं किया गया.

1 comment:

अरुण चन्द्र रॉय said...

बढ़िया समीक्षा फिल्म की... सुन्दर !