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कुछ लोग कुत्ते बना दिए जाते हैं
कुछ लोग कुत्ते बन जाते हैं
कुछ लोग कुत्ते पैदा होते हैं
कुत्ते बनने और बनाने का जो खेल है
काफी हमदर्दी और दया का है
क्योंकि न तो कुत्ते के पूंछ
सीधे होते हैं और न ही किए जा सकते हैं
आदमी थोड़ी देर पैर या हाथ मोड़कर
सोता है लेकिन थोड़ी देर बाद सीधा कर लेता है
लेकिन कुत्ते की पूंछ हमेशा टेढ़ी ही रहती है
न तो उसे दर्द होता है और न ही सीधा करने की उसकी इच्छा होती है
कुत्ता कुछ सूंघता है, लघुशंका करता है
और फिर वहां से नौ-दो-ग्यारह हो जाता है
लेकिन जो कुत्ते बना दिए जाते हैं
वह सूंघते तो हैं लेकिन करने लगते हैं चुगलखोरी और चमचागिरी
जो कुत्ते बन जाते हैं वे इसे इतर नहीं होते
उनके होते तो हैं दो हाथ व दो पैर
लेकिन दूसरों के जूठे, थूक-खखार व किए हुए उल्टी
चाटने में मजा आता है
हां, और जो लोग जन्मजात कुत्ते होते हैं
वे कुत्तेगिरी से बाहर नहीं निकल सकते
ऑफिस में नौकरी कम, बॉस के तलवे अधिक चाटते हैं
और रात होने पर बन जाते हैं महज एक नैपकीन।
7 comments:
आप की रचना में बहुत अक्रोश भरा है....अपने मनोभावों को बहुत बढिया शब्द दिए हैं। बधाई।
इतना गंभीर व्यंग्य .. या सच्चाई !!
kya bat hai...
masalaa ganbheer lagta hai!!!
कुत्ते और आदमी श्रंखला की बहुत सारी कविताये याद आ गई फैज़ साहब ने भी लिखा है । एक कविता मैने भी लिखी थी बरसों पहले .. लेकिन हम आदमी हैं कुत्ते नही / आओ उठे दौड़े / और छीन ले उनके हाथो से वे पत्थर / हमारे हाथ अभी बाकी है । इस कविता के लिये बधाई ।
आदमी का कुत्तापन गंभीर चीज है, क्योंकि इसमें वफादारी के सिवा सब कुछ है।
बढ़िया है विनीत... वक्त के साथ इंसान बदल रहा है... पहले गधों में गिनती होती थी.. अब कुत्तों से बराबरी... शानदार रचना।
मुझे पहचानने की कोशिश करो।
http://abyazk.blogspot.com
भाई बडा दुखी लगते हो....लेकिन इस कुत्ते को फेस किसका चिपका दिया...और कुछ लिखता तो ठीक तरीके से...
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