2/02/2009

मुद्दा : स्लम के बहाने राह ताकती जिंदगी

निर्देशक डैनी बोयल की फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ का ऑस्कर की दस श्रेणियों में नामांकित होना और फिल्म के जरिए भारत की एक अलग छवि पेश करना एक विचारणीय मुद्दा है। मुद्दा सिर्फ उस नकारात्मक छवि को प्रदर्शित करने का नही हैं बल्कि उस सोच का भी है जिसने फिल्म को ऑस्कर की कई श्रेणियों में नामांकित कराया। यह फिल्म निर्माताओं व निर्देशकों के लिए भी एक सबक है कि जिस देश में हर साल मनोरंजन के नाम पर सैकड़ों फिल्में बनती हों वहां मुंबई के स्लम इलाकों के बच्चों और उनकी जिंदगी पर आधारित फिल्म मुनाफा कमाने के साथ-साथ आम लोगों को बड़े पर्दे तक खींच सकती है। फिल्म एक सबक है कि सिर्फ ख्वाब ही नहीं बिकते, बल्कि हकीकत व जिंदगी की जद्दोजहद भी बिकती है।
फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ की पटकथा सिर्फ और सिर्फ देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के धारावी स्लम इलाके की कहानी नहीं है बल्कि दुनिया के तमाम स्लम इलाकों की जीवंतता है। क्योंकि प्राय: सभी स्लम इलाकों की हालत एक जैसी ही है। हालांकि धारावी इलाके की एक सच्चाई यह भी है कि यहां के लोगों द्वारा निर्मित सामानों की सप्लाई पूरे देश में होती है और इसका टर्न आ॓वर करीब तीस अरब रूपए है। भले ही फिल्म को लेकर लोग बवाल खड़ा करें कि इसके जरिए भारत की नकारात्मक छवि पश्चिमी देशों के सामने रखी गई है लेकिन दुनिया को सच्चाई मालूम है। दुनिया के समृद्धशाली देशों के अधिकतर शहरों की स्थिति इससे और भी भयावह है। चाहे वह ब्राजील का रिआ॓ डी जेनेरो हो या हांगकांग का ताईहांग जिला। कभी ब्रिटेन के वेस्ट यार्क शायर के बिशॉपगेट स्लम इलाके के लोगों का जीवन भी धारावी के लोगों से भिन्न नहीं था। दुनिया की सबसे बड़ी स्लम बस्ती नैरोबी के कीबेरा में करीब छह लाख लोग रहते हैं। कंबोडिया के स्लम इलाके फनोम पेंह की अधिकतर आबादी रेलवे लाइन व नहर के किनारे झुग्गियों में रहती है। यही हाल, श्रीलंका की राजधानी कोलंबो, मिस्र के शहर काहिरा और भारत के मुंबई, दिल्ली व कोलकाता की भी है। पाकिस्तान के कराची शहर के पास का इलाका आ॓रंगी हो या बांग्लादेश की राजधानी ढाका, हर स्लम बस्तियों की लगभग हालत एक जैसी ही है।

संयुक्त राष्ट्र हैबिटेट-2006 की रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ कॉमनवेल्थ देशों में 32 करोड़ लोग स्लम में रहने के लिए विवश हैं। अनुमान के मुताबिक, यदि यही हालत रही तो 2020 तक दुनिया में करीब और 10 करोड़ लोग स्लम में रहने के लिए विवश होंगे। और तो और, 2030 तक यदि इस आ॓र ध्यान नहीं दिया गया तो दुनिया की आधी आबादी इन स्लम बस्तियों में मिलेगी। संयुक्त राष्ट्र हैबिटेट के 21वें सम्मेलन में इस मामले में दुनिया के लोगों का ध्यान आकर्षित कराया गया था कि दुनिया के बड़े शहर मसलन बैंकाक, मुंबई व कोलकाता इससे अछूते नहीं हैं। अफ्रीका में 20 फीसद आबादी और लैटिन अमेरिका में 14 फीसद लोग स्लम इलाकों में रह रहे हैं। सिर्फ एशिया के विभिन्न हिस्सों की झुग्गियों में भी 55 करोड़ लोग रह रहे हैं। जहां तक भारत की राजधानी दिल्ली की बात है तो 2000 तक यहां करीब 1100 स्लम बस्तियां थीं, जिनमें रोजी-रोटी के लिए देश के विभिन्न इलाकों से आए करीब 30 लाख लोग रह रहे थे। दिल्ली को विश्वस्तरीय बनाने के लिए इन स्लम बस्तियों को हटाने का काम लगातार जारी है। संयुक्त राष्ट्र ने सभी देशों का ध्यान जिस आ॓र आकृष्ट कराया है उनमें पीने के पानी, शौचालय, आवास आदि की समस्या के अलावा रहने-खाने की उचित व्यवस्था करना शामिल है।

अब सवाल यह है कि जब स्लम बस्तियां शहरीकरण के चेहरे पर भद्दा दाग है तो इनके पुनर्वास के लिए सरकार, स्वयंसेवी संस्थााओं के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां क्या कर रही हैं? यदि धारावी पर बनाई गई फिल्म के जरिए लोगों को लगता है कि इससे भारत की छवि विश्व पटल पर खराब होगी या हो रही है तो इसके निराकरण के क्या उपाय हैं? सरकार इन इलाकों के उत्थान और यहां रहने वाले लोगों के जीवनस्तर सुधारने के लिए क्या उपाय कर रही है? कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर राजधानी के यमुनापुस्ता इलाके से उजाड़े गए लोगों की स्थिति क्या है? ये तमाम ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब न तो सरकार के पास है और न ही आम लोगों के पास। फिर ऐसे मामलों पर बनने वाली फिल्मों का और भी स्वागत होना चाहिए जिससे समाज के इस चेहरे को अपने मौजूदा हालत से उबरने का मौका मिले, न कि ऐसे मुद्दों को सामने लाने का विरोध।

(यह आलेख राष्ट्रीय सहारा के सम्पादकीय पेज पर २ फरवरी को छपा है.)

2 comments:

Udan Tashtari said...

स्लम बस्तियों की बहुत सारी जानकारी मिली इस आलेख से. जानकारीपूर्ण होने के साथ साथ विचारणीय आलेख. बहुत आभार इसे प्रस्तुत करने का.

Apni zami apana aasam said...

कब तक लेख नकल करते रहोगे बिहारी बापू... अब तो सुधर जाओ...अन्यथा ना लेना .. बस तारीफ करने का मन नहीं किया