विनीत उत्पल
मैग्ससे
पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार टीवी समाचार जगत में न्यूज़रंजक
चेहरे के तौर पर उभरे हैं. ‘न्यूज़रंजक’ शब्द ‘मनोरंजक’ शब्द से प्रेरित है यानी
जहाँ ‘न्यूज़’ भी है और ‘रंजन’ भी है. वर्तमान समय में एनडीटीवी पर उनके द्वारा
प्रस्तुत ‘प्राइम टाइम’ शो को देखें तो समाचार कम, मनोरंजक अधिक लगते हैं. वे कभी
राष्ट्रीय मंत्रियों पर तो कभी तमाम टीवी समाचार चैनलों पर तंज कसते हैं. कभी अपने
शो के पार्श्व को ‘ब्लैक’ कर खुद को पत्रकारिता का प्रतीक घोषित करते हैं. रवीश
कुमार बार-बार अपने प्राइम टाइम, फेसबुक या अन्य जगहों पर दर्शकों से गुजारिश करते
हैं कि वे टीवी समाचार चैनल न देखें. ऐसे में बात सामने आती हैं कि यदि दर्शक कोई समाचार
चैनल न देखे तो एनडीटीवी ही क्यों देखे. यदि दर्शक एनडीटीवी भी न देखे तो इसका
सीधा अर्थ है कि उनके चैनल में भी कुछ गलत परोसा जा रहा है. यदि रवीश कुमार के
दावों पर विश्वास करें कि बाकी मीडिया ‘गोदी मीडिया’ है तो ऐसे में एनडीटीवी खासकर
रवीश कुमार ने अपने शो का स्तर ऐसा नहीं रखा जो दर्शक कहें कि बस समाचार तो एनडीटीवी
के प्राइम टाइम में ही दिखता है.

रवीश कुमार को अधिकांश दर्शक गंभीर और सामाजिक चेतना से जागृत पत्रकार के तौर पर जानते हैं. ‘रवीश की रिपोर्ट’ वाला रवीश कुमार भारतीय मीडिया जगत का वह चेहरा है, जो हर युवा के लिए ‘स्टार’ है और पत्रकारिता में आने वाला हर युवा खुद में ‘रवीश कुमार’ का अक्स देखता है. मगर, कोरोना काल या इससे कई वर्ष पहले से रवीश कुमार का पत्रकारीय चरित्र पूरी तरह बदल गया है. वे सीधे तौर पर ख़बरों को पड़ोसने या विश्लेषण करने के बजाय तमाशा प्रस्तुत करने वाले ‘मास्टर किंग’ की भूमिका में दिख रहे हैं. वे अपने शो के बेशकीमती समय में किस तरह ‘टाइम पास’ करते दीखते हैं, इसका अकादमिक अध्ययन आवश्यक है. वे अपने शो को मनोरंजक तौर पर दिखाने के लिए अधिकारियों और नेताओं को विशेष विशेषण से संबोधित तो करते हैं और ख़बरों के साथ अपने विचारों को जबरदस्ती घुसेड़ देते हैं. अपने ‘प्राइम टाइम’ शो में सरकारी विज्ञप्ति को पढ़कर लोगों का मनोरंजन भी करते हैं. ऐसे में सवाल यह है कि किसी का मजाक उड़ाने या फिर सिर्फ प्रेस विज्ञप्ति को पढ जाने से पूरी दुनिया में फैले एनडीटीवी के तमाम दर्शकों को क्या मिलता है?
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जुलाई, 2020 के प्राइम टाइम में वे जिस तरह से ‘देखो देखो रफाल आया रफाल आया’ पेश
किया और अपना चेहरा बनाया, क्या वह चेहरा मैग्ससे पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ
पत्रकार रवीश कुमार का है? (https://khabar.ndtv.com/video/show/prime-time/ravish-kumars-prime-time-look-rafal-came-rafal-came-555998) 30 जुलाई, 2020 के प्राइम टाइम में वे ‘नीति कहाँ
है नई शिक्षा नीति की’ में रवीश कुमार शिक्षा नीति के ड्राफ्ट नहीं मिलने की बात
कहते हैं और वे पीआईबी द्वारा जारी प्रेस रिलीज़ के आधार पर खबर बनाते हैं. इसी शो
में काजी नसरूल यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर देवादित्य भट्टाचार्य ‘ड्राफ्ट
सर्कुलेशन’ की बात कहकर उस मसौदे पर विस्तार से चर्चा करते हैं और तमाम मीडिया
संस्थान के पास ड्राफ्ट होने की बात कहते हैं. एक ही शो में ऐसा विरोधाभाष रवीश
कुमार के तमाम ‘प्राइम टाइम’ शो में दिखाई देता है (https://khabar.ndtv.com/video/show/prime-time/ravish-kumars-prime-time-where-is-the-policy-of-new-education-policy-556083). इसी शो में नई शिक्षा नीति की खामियों को लेकर वे
अपने विशेषज्ञ से सवाल करते हैं लेकिन क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे ड्राफ्ट
की अच्छाइयों को लेकर भी दर्शकों को जानकारी दें. अध्यापन से जुड़े लोगों को पता
होगा कि असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और प्रोफ़ेसर के ज्ञान और अनुभव में कितना फासला होता
है लेकिन प्राइम टाइम में नई शिक्षा नीति जैसे गंभीर और महत्वपूर्ण विषय में वे एक
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर से विचार-विमर्श करते हैं, वह भी पश्चिम बंगाल स्थित स्टेट
यूनिवर्सिटी के एक शिक्षक से. क्या जेएनयू, जामिया, डीयू, कलकत्ता विश्वविद्यालय,
मुंबई विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस, एनसीईआरटी
सहित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) जैसे संस्थानों में ऐसा कोई वरिष्ठ शिक्षक
उन्हें नहीं मिला या तैयार नहीं हुआ, जो नई शिक्षा नीति पर बात कर सके? प्राइम
टाइम शो में किसी महत्वपूर्ण विषय पर किसी वरिष्ठ शिक्षक का शामिल न होना, एंकर की
पहचान पर प्रश्नचिन्ह लगाता है.
पत्रकार
की भूमिका सत्ता के पक्ष और विपक्ष दोनों में खड़े होने की और उन्हें एक आइना दिखाने
की होती है. पत्रकारिता जल्दी में लिखा गया इतिहास होता है. जब सामाजिक और राजनीतिक
शून्यता व्याप्त होती है, तब मीडिया की भूमिका की अहमियत बढ़ जाती है. जब हर कोई एक
ही नैरेटिव की बात कटे तो पत्रकार का कर्तव्य होता है कि वह समाज को ध्यान में
रखकर समाज की बात करे और समाज को एक नई दिशा दे. पत्रकार का यह कार्य नहीं होता कि
यदि तमाम मुर्गे पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बांग दे रहे हैं तो खुद को होशियार
दिखाने वाला मुर्गा पश्चिम दिशा में मुंह करके बांग देने का स्वांग भरे. पत्रकार
का कर्तव्य होता है कि वह विपरीत परिस्थितियों में सच के साथ रहे और वही प्रस्तुत
करे.
यदि
कुछ समय बाद भारतीय मीडिया का इतिहास लिखा जाएगा तो यह बात अवश्य रेखांकित किया
जाएगा कि एनडीटीवी द्वारा प्रस्तुत तमाम खबरों में जहां प्रस्तोता काफी गंभीर होता
था और गंभीरतापूर्वक खबरें परोसी जाती थी, वहीं रवीश कुमार द्वारा प्रस्तुत ‘प्राइम
टाइम’ शो इस दौर का ‘प्रहसन शो’ था. रवीश कुमार समाचार दर्शकों के बीच परिचित चेहरा
हो लेकिन यह सत्य है कि उन्होंने ही प्राइम टाइम में अपने शो को ‘ब्लैक’ किया था.
मीडिया शोधकर्ता इस बात की तस्दीक अवश्य करेंगे कि जब भारत में तथाकथित ‘गोदी
मीडिया’ का बोलबाला था तब एनडीटीवी के प्राइम टाइम में ख़बरों के नाम पर सिर्फ रंजन
ही नहीं परोस रहा था बल्कि एक एंकर भी तमाशा के एक पात्र के रूप में शामिल था. वह एंकर
अपने शो में बार-बार ‘हिन्दू-मुस्लिम’ शब्द का इस्तेमाल कर दूसरे समाचार चैनलों पर
तंज कसता था, सरकार पर तंज कसता था. संदेश का आदान-प्रदान करने वाले ‘व्हाट्सएप’
नामक एप को अपने शो में ‘व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी’ कहता था और उसकी आड़ में अपनी मन
की बात अपनी जुबान से कहता था. एनडीटीवी का वह पत्रकार ठसक के साथ अपना शो तो पेश करता
है लेकिन दिल की कसक चेहरे पर साफ़ दिखता था, आँखों में दिखता था.
बहरहाल, ‘जुबां पे सच, दिल में इंडिया’ यानी एनडीटीवी इंडिया का
इतिहास भले ही उज्जवल रहा हो और टीवी पत्रकारिता की दुनिया में कई इतिहास का
निर्माण किया हो लेकिन इसी के नाम पर स्तरहीन ‘प्राइम टाइम’ शो भी दर्ज किया
जायेगा. यह भी याद किया जायेगा कि कैसे एक संवेदनशील पत्रकार, रिपोर्टर और एंकर का
चेहरा बदला और लगातार बदलता जा रहा है और सरोकार वाला पत्रकार कैसे प्रहसन
प्रस्तुत करता है. ‘गोदी मीडिया’ और ‘व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी’ जैसे शब्दों के जरिये
तंत्र पर तंज कसता हो, उसकी भविष्य की पत्रकारिता यात्रा कैसी होगी, इसका अध्ययन
आवश्यक है.
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