
जज साब!
बचा लो मुझे
बचा लो...
इस अनैतिक सियासत से / इस लम्पट लम्पट लम्पट लम्पट दौर से
जज साब!
सुन लो मेरी शिक़ायत
ले लो मेरी गवाही
लिख लो मेरा बयान
जज साब!
मैं अयोध्या
सरयू पुत्र अयोध्या
आपकी अदालत में
जो कहूँगा
सच कहूँगा...
जज साब!
यूं तो वह
६ दिसम्बर १९९२ का दिन था
मगर हालत ऐसे थे कि वह
उन दिनों की
कोई भी तारीख हो सकती थी
उस दिन हुआ था
उन तीन गुम्बदों का ध्वंस
मेरे सांझेपन का कत्ल
मेरी तहजीब का अपहरण
मेरी पहचान का बलात्कार
जी हाँ जज साब!
मैं वहीं था उस वक्त
बेबस और असहाय
सती होती स्त्री-सा
जिबह होते बकरे-सा
सूली पर चढ़ते निरपराध-सा
अपहृत सीता-सा
भयाक्रांत और उद्विग्न
क्योंकि घोषित हो रहा था
कि किसी भी वक्त
धकेल दिया जाएगा मुझे
वहीं 'सरयू ' में
कथित धर्म-रक्षार्थाय
उस दिन...
मेले में गुम बच्चे की तरह
मुझसे पूछा जा रहा था
बाप का नाम
घर का पता
प्रश्नों के चप्पुओं से
खेता रहा
समय की नाव
जज साब! मैंने देखें हैं
अपने सामने सैकड़ों युद्ध
अपनी छाती पर बहती खून की नदियाँ
सही हैं आत्मा पर
हजारों घावों के दर्द की चीत्कारें
इसलिए मैं नही याद करना चाहता
वह वक्त
क्योंकि मैं नये ख्वाबों को लेकर
जाना चाहता हूँ भविष्य में
आजादी के नये वितान में
जीवन के नये संविधान में
लेकिन जज साब!
अब की बार
सियासत की बिसात पर
बनाया गया है मुझे
साजिश, सत्ता और स्वार्थ का
नया मोहरा
अपनों ने हे किया विश्वासघात...
बताइए जज साब!
ऐसे में उस दिन
मैं कहाँ जाता, क्या करता?
उस दिन सुबह
हवा में
भयानक चुप्पी थी
लेकिन मस्तिष्क बज रहे थे
टनाटन
माँ सरयू
फटी-फटी आँखों से
देख रही थीं
कुचला जाता मेरा बदन
आकर लेता
एक विराट ऑक्टोपस
जो पी रहा था
मेरे जीवन का सत्व
उस दिन
एक सोये हुए अजगर ने
फिर ली थी अंगडाई
और पूरा इलाका
कांप उठा था
न जाने अब क्या हो!!
आस्था के
अकर्मण्य रिश्तेदार
देश के वे जिम्मेदार
किंकर्तव्यविमूढ़-से
हाजिर थे वहीं जज साब!
मैं गिना सकता हूँ आज भी
उनमें से एक-एक के नाम
मैं वहीं था उस वक्त
जब
बेकसूर सद्भावना और
सम्मति को
शब्दों के पेडों से बांधकर
लगाए जा रहे थे कोड़े
सटासट-सटासट
उसी समय
मैंने देखा था जज साब!
कि मुई सियासत ने भी
भीड़ को
थमा दिया था
नशीला कटोरा, शरारती आग
और नशे में धुत
दिशाहीन भीड़
करने लगी थी अग्निपान
मैं वहीं था उस वक्त
जब नौजवान भविष्य
प्यास से व्याकुल
मांग रहा था पानी
और वे पानीदार
उसके मुहं पर
थूक रहे थे
साम्प्रदायिकता और जातिवाद का
बदबूदार बलगम
देश का मकरंद
संशय के धुएं और धूल में
लिथड़ रहा था
और
सिंहासन की छीना-झपटी में
लग गई थी तिरंगे में
बड़ी-सी खूंत
जज साब! उस दिन
सुबह के मुँह से
फूटा था
आदिम युग की
बदबू का भभूका
जेहनों से रिस रही थी
जहरीली गैस
जैसे यूनियन कार्बाइड से
रिस गई हो
'मिथाइल आइसोसायनाइड'
उस दिन
ख़बरों में परोसी गई थी
इतिहास के कब्रिस्तान की
पुरानी कब्रों से उघारकर
गली हुई लाशों की सडांध
विद्वेष की बेहतरीन तस्तरी में
जिसे चटखारे ले-ले
लपक-लपककर
भकोस रहे थे
अखबारी लोग
जज साब!
मैं वहीं था उस वक्त
जहाँ शब्द
अपना दुरूपयोग न किये जाने की
हाथ जोड़कर
मिन्नतें कर रहे थे सियासत से
चेतावनियाँ दे रहे थे बार-बार
मगर
काफ़ी की चुस्कियों
व सिगरेट के कशों के बीच
बुद्धिजीवियों में
चलती रही
सुविधा, सत्ता और
स्वार्थ की भागीदारी
होती रही कबूतरबाजी
चलते रहे सांड-संघर्ष
डब्लू-डब्लू एफ
लोग लगाते रहे
एक-दूसरे पर
सट्टा...
जज साब!
जब
मेरे आंगन में
गिराए गए थे
वैमनस्य के परमाणु-बम
तब आण्विक विखंडन से
तापमान
सूर्य के गर्भास्थल से
ऊपर हो चला था वहां
तब
साफ देखा था मैंने जज साब!
चपेट में आ गई थी
मेरी बगिया
हरे-भरे खेत, हरिया की बारात
मेरी कविता
मेरा इतिहास
मेरी संस्कृति और
मेरा वजूद
जज साब!
वो तो मेरे राम का ही प्रताप था
जो मैं इस बार
बचकर आ पाया हूँ
आपके सामने
मगर जज साब!
जैकारों, ग्वोर्क्तियों व
अट्टहासों के बीच
आज भी नन्हीं नुसरत चौंकती है बार-बार
छुटका वहीद आपा से पूछता है-
'आपा! अयोध्या में तो
भक्तों का मेला है
हुजूम है, रेला है
मगर हमारी फूल की दुकान के फूल
क्योँ नहीं बिकते है अब?'
जज साब! आप तो जानतें हैं
मेरी एक-एक गली में
नुसरत की, सुलेमान शेख की
अहमद या निसार की फूल मालायें
प्रतीक्षा कर रही हैं
आज भी
मैं इसलिए कह रह हूँ
जज साब!
क्योंकि देखा नही जाता
फूलों को इस तरह
मुरझाते हुए प्रतीक्षा करना
अपने ही घर में
नन्हीं नुसरत का
इस तरह नींद में चौंकना
समय! मेरे न्यायाधीश!
मैं अयोध्या वल्द भारत
हाथ जोड़कर गुहार लगता हूँ आपसे
इससे पहले
कि मिट जाये
मेरा वजूद , मेरा घर-परिवार
मुझे बच लीजिये
बचा लीजिए
इस अनैतिक सियासत से
इस लम्पट दौर से...
(आप हरेराम नेमा 'समीप ' को नहीं जानते। मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के मेख गाँव के हरेराम चर्चित सीरियल नक्षत्रस्वामी की पटकथा और गीत लिखा है। फिलहाल तीनमूर्ति भवन स्थित जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि में लेखाधिकारी हैं और फरीदाबाद में रहते है। गाँव-परिवार में विपन्नता, दमन और जिल्लत में जिए प्रारंभिक अठारह-बीस साल के दारूण अहसास और विभिन्न महानगरों में बाद के तीस-पैंतीस सालों के संघर्षपूर्ण जीवन ने उनके पूरे लेखन को संचालित किया है। कई ग़ज़ल संग्रहों, कहानी संग्रह, दोहा संग्रह सहित कई पत्रिकाओं का संपादन करने वाले हरेराम समीप की कविता संग्रह 'मैं अयोध्या...' की यह कविता है)
5 comments:
बहुत सुन्दर कविता... समकालीन कविता..
nice
बहुत लंबी लिख दी कविता...........
श्रीराम जय राम - जय जय राम
बधाई हो
बधाई हो
दोनों पक्षों को शुभकामनाएं.
बहुत विस्तृत फलक है इस कविता मे ।
हृदयस्पर्शी कविता है। सत्ता और धर्म के दलालों के मुंहा पर तमाचा मारती अयोध्या की व्यथाकथा। साधुवाद।
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